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पश्येकलक्षणं तत्र साधनम् । साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धमुदाहृतम्” इति ॥ १ ॥ तदेवमविनाभावैकलक्षणात् साधनाच्छक्याभिप्रेताप्रसिद्धरूपस्य साध्यस्य ज्ञानमनुमानमिति सिद्धम् ।
साधन और साध्य इन दोनोंके विषय में श्लोकवार्तिक में भी कहा है कि "जो साध्यके विना न पाया जाय वह साधन कहाता है और जो शक्य, अभिप्रेत तथा अप्रसिद्ध हो उसको साध्य कहते हैं" । इससे यह सिद्ध हुआ कि अविनाभाव ही है मुख्य लक्षण जिसका ऐसे साधनसे उत्पन्न हुए शक्य, अभिप्रेत, तथा अप्रसिद्ध रूप साध्य के ज्ञानको अनुमान कहते हैं ।
तदनुमानं द्विविधं स्वार्थ परार्थ च । तत्र स्वयमेव निश्चितात्साधनात्साध्यज्ञानं स्वार्थानुमानम् । परोपदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव निश्चितात्प्राक्तर्कानुभूतव्याप्तिस्मरण सहकृताद्धूमादे: साधनादुत्पन्नं पर्वतादौ धर्मिण्यग्न्यादेः साध्यस्य ज्ञानं स्वार्थानुमानमित्यर्थः । यथा पर्वतोयमग्निमान्धूमवत्त्वादिति । अयं हि स्वार्थानुमानस्य ज्ञानरूपस्यापि शब्देनोल्लेखो, यथायं घट इति शब्देन प्रत्यक्षस्य पर्वतोयमग्निमान्धूमवत्त्वादित्यनेन प्रकारेण प्रमाता जानातीति स्वार्थानुमानस्थितिरवगन्तव्या ।
उस अनुमानके दो भेद हैं, एक स्वार्थ दूसरा परार्थ । स्वयं ही निश्चित किये हुए साधनसे उत्पन्न हुए साध्य के ज्ञानको स्वार्थानुमान कहते हैं । अर्थात् दूसरेकी अपेक्षा न रखकर स्वयं ही निश्चित, तथा तर्कप्रमाणसे जिसका पहले ही अनुभव हो चुकता है ऐसी व्याप्तिके स्मरण से युक्त, ऐसे धूमादिक हेतुसे पर्वतादि धर्मी में उत्पन्न होनेवाला जो अग्नि आदिक साध्यका ज्ञान उसको स्वार्थानुमान कहते हैं। जैसे कि यह पर्वत अग्निवाला है क्योंकि