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कहते हैं तथा जिसमें सन्देहादिक मौजूद हों उसको अप्रसिद्ध कहते हैं । इस प्रकार जिसमें उक्त तीनों बातें पाई जायं उसीको साध्य कहते हैं । जो शक्य नहीं है उसको भी यदि साध्य माना जाय तो वह्निमें उष्णताका अभाव भी साध्य हो जायगा । इसी प्रकार जो सिद्ध है उसको भी साध्य माना जाय तो अनुमान व्यर्थ समझा जायगा, क्योंकि जब साध्य पहलेसे ही सिद्ध है तब अनुमानका क्या प्रयोजन ? ।
तदुक्तं न्यायविनिश्चये “साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्ध ततोऽपरम् । साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः॥१॥" इति । अयमर्थः यच्छक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं तत्साध्यं । ततोऽपरं साध्याभासम् । किं तत् ? विरुद्धादि । विरुद्धं प्रत्यक्षादिबाधितम् । आदिशब्दादनभिप्रेतं प्रसिद्धं चेति । कुत एतत् ? साधनाविषयत्वतः साधनेन गोचरीकर्तुमशक्यत्वात् । इत्यकलङ्कदेवानामभिप्रायलेशः, तदभिप्रायसाकल्यं तु स्याद्वादविद्यापतिर्विवेद।
यही बात न्यायविनिश्चयालङ्कारमें कही है कि “साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम् । साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः”। अर्थात् जो शक्य, अभिप्रेत, और अप्रसिद्ध है वह साध्य है । जो ऐसा नहीं है वह साध्याभास है । वह कौन है ? विरुद्धादिक । जो प्रत्यक्षादिसे बाधित हो उसको विरुद्ध कहते हैं। आदि शब्दसे अनभिप्रेत तथा प्रसिद्ध समझना चाहिये । क्योंकि वे साधनके विषय नहीं हैं । अर्थात् साधनसे उनका ज्ञान नहीं हो सकता। यह अकलङ्कदेवके अभिप्रायका लेशमात्र है उनके सम्पूर्ण अभिप्रायको तो स्याद्वादविद्यापतिने ही जाना है।
साधनसाध्यद्वयमधिकृत्य श्लोकवार्तिकं च "अन्यथानुप