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र्तिके “साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानं विदुर्बुधाः" इति । साधनाज्ज्ञायमानाद्भूमादेः, साध्येऽन्यादौ लिङ्गिनि यद्विज्ञानं तदनुमानम् । अज्ञायमानस्य तस्य साध्यज्ञानजनकत्वे हि सुप्तादीनामगृहीतधृमादीनामप्यम्यादिज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गः । तसाज्ज्ञायमानलिङ्गकारणकस्य साध्यज्ञानस्यैव साध्याव्युत्पत्तिनिराकारकत्वेनानुमानत्वम् । नतु लिङ्गपरामर्शादेरिति बुधाः प्रामाणिका विदुरिति वार्तिकार्थः।
(शङ्का) आपके मत साधनको ही अनुमानमें हेतु माना है, साधनके ज्ञानको नहीं । क्योंकि पहले ऐसा कहा जा चुका है कि "साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं"। (समाधान) यह शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि यहांपर साधनशब्दसे निश्चित हुए धूमादिक ही विवक्षित हैं अर्थात् जिस हेतुका निश्चय होचुका हो वह यहांपर साधन शब्दसे समझना चाहिये। क्योंकि जो हेतु निश्चयमार्गमें प्राप्त नहीं है वह साधन ही नहीं हो सकता । श्लोकवार्तिकमें ऐसा ही कहा है कि “साधनसे साध्यके ज्ञानको विद्वान् अनुमान कहते हैं"। इसका यही अर्थ है कि "साधनसे, अर्थात् जाने हुए धूमादिकसे साध्य-अग्नि आदिक लिङ्गीका जो शान उसको अनुमान कहते हैं । क्योंकि अज्ञायमान हेतुको साध्यज्ञानका उत्पादक माननेसे सोते हुए मनुष्यको तथा जिसको धूमादिक हेतुका ज्ञान नहीं है उसको अग्नि आदिका ज्ञान होना चाहिये, पर होता नहीं । इसलिये शायमान लिङ्गसे उत्पन्न हुए साध्यके ज्ञानको ही अनुमान कहना चाहिये, न कि हेतुके ज्ञान आदिको, क्योंकि, उसीसे साध्यविषयका अज्ञान दूर होता है। ऐसा विद्वानोंको मानना चाहिये। यह वार्तिकका अर्थ है। किं तत्साधनं यद्धेतुकं साध्यज्ञानमनुमानमिति चेदुच्यते