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यदि अप्रमाण है तो उससे ग्रहण की हुई व्याप्तिमें किस प्रकार विश्वास हो सकता है ? यदि प्रमाण है तो प्रत्यक्ष है अथवा अनुमान ? प्रत्यक्ष तो हो नहीं सकता, क्योंकि, उसका प्रतिभास स्पष्ट नहीं है । अनुमान भी नहीं हो सकता, क्योंकि, उसमें लिङ्गदर्शनादिककी अपेक्षा नहीं है । अर्थात् जो अनुमान होता है वह लिङ्गदर्शन से उत्पन्न होता है, इस विकल्पमै लिङ्गदर्शनादिक अपेक्षित नहीं हैं । इसीलिये यह अनुमान भी नहीं है । यदि वह विकल्प प्रत्यक्ष और अनुमानसे भिन्न तीसरा प्रमाण है तो यही फलितार्थ सिद्ध हुआ कि वह तर्क है । इस प्रकार तर्क प्रमाणका निर्णय किया ।
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आगे अनुमानका वर्णन करते हैं:साधनात्साध्य विज्ञानमनुमानम् । इहानुमानमिति लक्ष्यनिदेशः, साधनात्साध्यविज्ञानमिति लक्षणकथनम् । साधनाडूमादेर्लिङ्गात्साध्येयादौ लिङ्गिनि यद्विज्ञानं जायते तदनुमा - नम् । तस्यैवाग्याद्यव्युत्पत्तिविच्छित्तिकरणत्वात् । न पुनः साधनज्ञानमनुमानं, तस्य साधनाव्युत्पत्तिविच्छेदमात्रोपक्षीणत्वेन साध्याज्ञाननिवर्तकत्वायोगात् ।
साधंनसे उत्पन्न हुए साध्यज्ञानको अनुमान कहते हैं। यहां पर "अनुमान" यह लक्ष्य निर्देश है और "साधनसे साध्यका ज्ञान होना” यह लक्षणकथन है । अर्थात् धूमादिरूप हेतुओंसे जो साध्यविषयक, अर्थात् अग्नि आदि लिङ्गियोंका ज्ञान होता है उसको अनुमान कहते हैं । क्योंकि यही ज्ञान अनि आदि विष य अज्ञानको दूर करने में समर्थ कारण है, अर्थात् उसीसे साध्य विषयका अज्ञान दूर होसकता है । साधनके ज्ञानको
१ जो साध्यके विना न पायाजाय उसको साधन कहते हैं । २ जिसको सिद्ध किया जाय उसको साध्य कहते हैं न्या० दी० ५
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