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बाले 'यह अग्नि हैं' इस प्रकारके ज्ञानमें विशेषता है; यह बात सभीके अनुभवमें आती है । जो यह विशेषता है उसीको निर्मलता, विशदता, स्पष्टता आदि शब्दोंसे कहते हैं । यही श्री. अकलङ्क भगवानने न्यायविनिश्चयालङ्कारमें कहा है कि "स्पष्ट (निर्मल), साकार (सविकल्प ), अञ्जसा (यथार्थ) ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं"। इसका स्याद्वादविद्यापति श्रीविद्यानन्दीस्वामीने इस प्रकार खुलासा किया है कि "निर्मल प्रतिभासको ही स्पष्टता कहते हैं और यह सभी परीक्षकोंको अनुभवसे सिद्ध है इसलिये इसका विशेष विवेचन हम नहीं करते।" इस प्रकार हमने जो प्रत्यक्षका विशदप्रतिभासत्व लक्षण कहा वह ठीक है।
"कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम्" इति ताथागताः । अत्र हि कल्पनापोढपदेन सविकल्पकस्य व्यावृत्तिः, अभ्रान्तमिति पदेन त्वाभासस्य । तथा च, समीचीनं निर्विकल्पकं प्रत्यक्षमित्युक्तं भवति । तदेतद्धालचेष्टितम् । निर्विकल्पकस्य प्रामाण्यमेव दुर्लभं, समारोपाविरोधित्वात् । कुतः प्रत्यक्षत्वं व्यवसायात्मकस्यैव प्रामाण्यव्यवस्थापनात् ।
बौद्ध "कल्पनापोढ (विशेष पदार्थक संकल्परहित, निर्विकल्पक) और अभ्रान्त ज्ञान प्रत्यक्ष है" ऐसा कहते हैं । यहां पर कल्पनापोढशब्दसे सविकल्पककी और अभ्रान्तशब्दसे आभासकी निवृत्ति की गई है, इससे यह फलितार्थ सिद्ध होता है कि 'समीचीन निर्विकल्पक ही प्रत्यक्ष है। परन्तु इस प्रकारका लक्षण करना बालक्रीड़ामात्र है । क्योंकि समारोप (संशयादि) का अविरोधी होनेसे निर्विकल्पक जब प्रमाण ही नहीं हो सकता, तो प्रत्यक्ष कैसे हो सकेगा? क्योंकि निश्चयात्मक ही ज्ञान प्रमाण होता है।
ननु 'निर्विकल्पकमेव प्रत्यक्षप्रमाणमर्थजत्वात् । तदेव हि परमार्थ सत् स्खलक्षणजन्यं, न तु सविकल्पकं, तस्यापरमार्थ