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अर्थके साथ प्राप्ति (सम्बन्ध) सिद्ध होती है । इस प्राप्तिको ही सन्निकर्ष कहते हैं । इसलिये सन्निकर्षरूप प्रत्यक्षके लक्षणमें अव्याप्ति दोष नहीं आता।
(उत्तर) चक्षुकी प्राप्यकारिता पूर्वोक्त रीतिके अनुसार अनुमानसे भी सिद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि यह अनुमान वास्तविक अनुमान नहीं है-अनुमानाभास है।
तद्यथा चक्षुरित्यत्र कः पक्षोऽभिप्रेतः किं लौकिकं चक्षुरुतालौकिकम् ? आये हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वं गोलकाक्षस्य चक्षुषो विषयप्राप्तेः प्रत्यक्षबाधितत्वात् । द्वितीये त्वाश्रयासिद्धः, अलौकिकस्य चक्षुषोऽद्याप्यसिद्धेः। शाखासुधादीधितिसमानकालग्रहणाद्यन्यथानुपपत्तेः चक्षुरप्राप्यकारीति निश्चीयते । तदेवं सत्रिकर्षाभावेपि चक्षुषा रूपप्रतीतिर्जायते इति सन्निकर्षोऽव्यापकत्वात् प्रत्यक्षस्य स्वरूपं न भवतीति स्थितम् ।
इस अनुमानमें कौनसे चक्षुको पक्ष किया है ? लौकिकचक्षुको अथवा अलौकिकचक्षुको? यदि लौकिकचक्षुको पक्ष किया है तो हेतु कालात्ययापदिष्ट नामदोषयुक्त हो गया, क्योंकि गोलकरूप चक्षुका विषयके साथ सम्बन्ध प्रत्यक्षसे बाधित है । यदि अलौकिकचक्षुको पक्ष किया है तो हेतु आश्रयासिद्ध है क्योंकि पक्षरूप अलौकिकचक्षु अभीतक किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं हुआ।
अतः यह निश्चय होता है कि चक्षु अप्राप्यकारी ही है, क्योंकि ऐसा न माननेसे वृक्षकी शाखा और चन्द्रमा इन
१ जहांपर साध्यकी सिद्धि की जाय उसको पक्ष कहते हैं। २ जो हेतु प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधित हो उसको कालात्ययापदिष्ट कहते हैं। ३ पक्षमें जिसकी सत्ता सिद्ध नहीं।