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च लिङ्गदर्शनाद्यपेक्षा, आगमस्य शब्दश्रवणसङ्केतग्रहणाद्यपेक्षा । प्रत्यक्षं तु न तथा स्वातन्त्र्येणैवोत्पत्तेः । स्मरणादीनां प्रत्ययान्तरापेक्षा तु तत्र तत्र निवेदयिष्यते ।
उसके पांच भेद हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । इन पांचों ही प्रकारके परोक्षप्रमाणोंकी उत्पत्ति दूसरे कारणोंकी अपेक्षा लेकर होती है। स्मरणमें पहले अनुभवकी अपेक्षा रहती है। प्रत्यभिज्ञान में स्मरण और अनुभवकी अपेक्षा रहती है। तर्कको अनुभव, स्मरण और प्रत्यभिज्ञानकी अपेक्षा है । अनुमानको लिङ्गदर्शनादिककी अपेक्षा है । आगमको शब्द के सुनने और सङ्केतादिके ग्रहण करनेकी अपेक्षा है । परन्तु प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्तिमें किसी दूसरे कारणकी अपेक्षा नहीं रखता, वह स्वतन्त्र ही उत्पन्न होता है। स्मरणादिकी उत्पत्तिमें जिन जिन कारणों की अपेक्षा है उनका उल्लेख उन उनका ( स्मरणादिका ) वर्णन करते समय किया जायगा ।
तत्र का नाम स्मृतिः । तदित्याकारा प्रागनुभूतवस्तुविषया स्मृतिः । यथा स देवदत्त इति । अत्र हि प्रागनुभूत एव देवदत्तस्तत्तया प्रतीयते, तस्मादेषा प्रतीतिस्तत्तोल्लेखिन्यनुभूतविषया च, अननुभूते. विषये तदनुत्पत्तेः । तन्मूलं चानुभवो धारणारूप एव । अवग्रहाद्यनुभूतेपि धारणाया अभावे स्मृतिजननायोगात् । धारणा हि तथा आत्मानं संस्करोति यथासावात्मा कालान्तरेपि तस्मिन् विषये ज्ञानमुत्पादयति । तदेतद्धारणाविषये समुत्पन्नं तत्तोल्लेखिज्ञानं स्मृतिरिति सिद्धम् ।
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स्मृति किसको कहते हैं ? पहले ग्रहण किये हुए पदार्थ को विषय करनेवाले " वह इस आकार के ज्ञानको स्मृति कहते हैं । जैसे कि "वह देवदत्त ।" यहांपर जिस देवदत्तका पहले ज्ञान हुआ था उसीका "वह" शब्दद्वारा ग्रहण किया