Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 70
________________ (शङ्का) यह ठीक है कि इन्द्रियां वर्तमान दशाका ही प्रकाश करती हैं, तथापि सहकारी कारणोंके सामर्थ्यसे वे पूर्वोत्तर दोनों दशाओंमें रहनेवाले एकत्वादिककी प्रतीतिको भी उत्पन्न कर सकती हैं, जैसे कि सिद्ध अंजनादि लगानेपर चक्षुसे व्यवहित पदार्थकी भी प्रतीति होने लगती है। अर्थात् यद्यपि चक्षुका यह सामर्थ्य नहीं है कि जिसके बीचमें कोई व्यवधान पड़ा हो ऐसे पदार्थकी प्रतीति करा सके परन्तु अञ्जनके संस्कारसे वह ऐसा कराता हुआ देखनेमें आता है, उसी प्रकार इन्द्रियां भी स्मरणादिके साहचर्यसे दोनों दशाओंमें रहनेवाले एकत्वादिककी प्रतीति करा सकती हैं । इसलिये अनुभव और स्मृतिसे भिन्न एक दूसरे प्रमाणकी कल्पनाका प्रयास करनेसे क्या प्रयोजन है ? (समाधान) इस प्रकारकी शङ्का करना भी ठीक नहीं है। क्योंकिः सहकारिसहस्रसमवधानेऽप्यविषये प्रवृत्तेरयोगात् । चक्षुषो हि अञ्जनसंस्कारादिः सहकारी स्वविषये रूपादावेव प्रवर्तको नत्वविषये रसादौ । अविषयश्च पूर्वोत्तरावस्थाव्यापकमेकत्वमिन्द्रियाणाम् । तस्मात्तत्प्रत्यायनाय प्रमाणान्तरमन्वेषणीयमेव । सर्वत्रापि विषयविशेषद्वारेण प्रमाणभेदव्यवस्थापनात् । __ हज़ार सहकारी कारण रहनेपर भी अविषयमै प्रवृत्ति नहीं हो सकती। चक्षुके सहकारी अञ्जनसंस्कारादिक, उसके (चक्षुके) विषयभूत रूपादिमें ही उसकी प्रवृत्ति करा सकते हैं, अविषयभूत रसादिकमें नहीं। पूर्वोत्तरदशामें रहनेवाला एकत्व, इन्द्रियोका अविषय है । इसलिये उसका ज्ञान करानेके लिये दूसरा प्रमाण मानना ही चाहिये । क्योंकि, सब जगह विषयविशेषताके होनेसे ही प्रमाणोंमें भेदकल्पना अथवा अनेकताकी कल्पना की जाती है । अर्थात् विषयके भिन्न होनेसे ही उसका ग्राहक प्रमाण भी भिन्न माना जाता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146