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ज्ञान उत्पन्न हुआ है। इसलिये इस तरहके ज्ञानको सादृश्यप्रत्यभिज्ञान कहते हैं । इसी प्रकार तीसरे उदाहरणमें पूर्वानुभूत बैलसे भिन्न भैंसामें रहनेवाली बैलसे विलक्षणता प्रत्यभिज्ञानका विषय है; इसको वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । इस प्रकार और भी अपनी प्रतीतिके अनुसार प्रत्यभिज्ञानके भेदोंकी कल्पना स्वयं कर लेना चाहिये । यहांपर प्रत्यभिज्ञानके सभी भेदोंमें अनुभव और स्मृतिकी अपेक्षा दीख पड़ती है इसलिये ये दोनों प्रत्यभिज्ञानके हेतु हैं।
केचिदाहुः "अनुभवस्मृतिव्यतिरिक्तं प्रत्यभिज्ञानं नास्ति" इति तदसत्, अनुभवस्य वर्तमानकालवर्तिविवर्तमात्रप्रकाशकत्वं, स्मृतेश्चातीतविवर्तद्योतकत्वमिति तावद्वस्तुगतिः । कथं नाम तयोरतीतवर्तमानकालसङ्कलितैक्यसादृश्यादिविषयावगाहित्वम् । तसादस्ति स्मृत्यनुभवातिरिक्तं तदनन्तरभावि सङ्कलनज्ञानम् । तदेव प्रत्यभिज्ञानम् ।
यहांपर कोई शङ्का करते हैं कि "अनुभव और स्मृतिसे भिन्न प्रत्यभिज्ञान कोई चीज नहीं।" परन्तु यह शङ्का ठीक नहीं। क्योंकि, जब ऐसा नियम है कि अनुभव केवल वर्तमानकालवर्ती पर्यायको विषय करता है और स्मृति भूतकालके पर्यायका द्योतन करती है, तब अनुभव या स्मृतिज्ञान भूत और वर्तमान इन दोनों ही कालोंसे युक्त ऐसे एकत्व या सदृशत्व आदि विषयोंका किस तरह प्रकाश कर सकते हैं ? इसलिये स्मृति तथा अनुभवसे भिन्न उनके अनन्तर होनेवाला, दोनोंका जोड़रूप ज्ञान एक जुदा ही मानना चाहिये; उसीको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। __ अपरे त्वेकत्वप्रत्यभिज्ञानमभ्युपगम्यापि तस्य प्रत्यक्षेन्तभौवं कल्पयन्ति । तद्यथा, यदिन्द्रियान्वंयव्यतिरेकानुविधायि