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तत्प्रत्यक्षमिति तावत्प्रसिद्धम्। इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायि चेदं प्रत्यभिज्ञानं तस्मात् प्रत्यक्षमिति । तन्न, इन्द्रियाणां वर्तमानदशापरामर्शमात्रोपक्षीणत्वेन वर्तमानातीतदशाव्यापकैक्यावगाहित्वाघटनात् । न ह्यविषयप्रवृत्तिरिन्द्रियाणां युक्तिमती, चक्षुषा रसादेरपि प्रतीतिप्रसङ्गात् ।
दूसरे कई वादी एकत्वप्रत्यभिज्ञानको मानकर भी उसका प्रत्यक्ष अन्तर्भाव करते हैं । "क्योंकि, जिस शानका इन्द्रियोंके साथ अन्वय, व्यतिरेक होता है उसको प्रत्यक्ष कहते हैं । इस प्रत्यभिज्ञानका भी इन्द्रियोंके साथ अन्वय व्यतिरेक है अर्थात् जहां प्रत्यभिज्ञान उपजता है वहां इन्द्रियोंका सद्भाव अवश्य होता है और उनके अभावमें प्रत्यभिज्ञान नहीं होता । इसलिये वह प्रत्यक्ष ही है।" परन्तु उनका यह मानना ठीक नहीं है। क्योंकि, इन्द्रियोंकी शक्ति केवल वर्तमानदशाके परामर्श करनेमें ही उपक्षीण हो जाती है इसलिये वे भूत और वर्तमान दोनों दशाओंमें रहनेवाली एकता आदिका प्रकाश नहीं करसकतीं । इन्द्रियोंकी अविषयमें अर्थात् भूतमें भी प्रवृत्ति मानना युक्तियुक्त नहीं है । क्योंकि, ऐसा माननेसे चक्षुसे रसादिकी प्रतीति होना भी उचित मानना पड़ेगा।
ननु सत्यमेतदिन्द्रियाणां वर्तमानदशावगाहित्वमेवेति, तथापि तानि सहकारिसमवधानसामादशाद्वयव्यापिन्येकत्वेपि प्रतीति जनयन्तु, अञ्जनसंस्कृतं चक्षुरिव व्यवहितेऽर्थे । नहि चक्षुषो व्यवहितार्थप्रत्यायनसामर्थ्यमस्ति, अञ्जनसंस्कारवशात्तु तथात्वमुपलब्धम् । तद्वदेव स्मरणादिसहकृतानीन्द्रियाण्येव दशाद्वयव्यापकमेकत्वं प्रत्याययिष्यन्तीति किं प्रमाणान्तरकल्पनाप्रयासेनेति, तदप्यसत् ।