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एवायं जिनदत्तो, गोसदृशो गवयो, गोविलक्षणो महिष इत्यादि।
अनुभव तथा स्मृतिके निमित्तसे होनेवाले, दोनोंके जोड़रूप ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । अर्थात् “यह" इस प्रकारके ज्ञानको अनुभव कहते हैं और "वह" इस प्रकारके ज्ञानको स्मरण कहते हैं । इन दोनोंके मेलसे उत्पन्न होनेवाला तथा पूर्व और उत्तर दोनों ही अवस्थामें रहनेवाली एकता या सदृशता अथवा विलक्षणताको विषयकरनेवाला जो जोड़रूप ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञान है । जैसे कि यह वही जिनदत्त है अथवा गौके सदृश गवय होता है । यद्वा भैंसा बैलसे विलक्षण होता है, इत्यादि। __ अत्र हि पूर्वस्मिन्नुदाहरणे जिनदत्तस्य पूर्वोत्तरदशाद्वयव्यापकमेकत्वं प्रत्यभिज्ञानस्य विषयः, तदिदमेकत्वप्रत्यभिज्ञानम् । द्वितीये तु पूर्वानुभूतगोप्रतियोगिकं गवयनिष्ठं सादृश्यम् । तदिदं सादृश्यप्रत्यभिज्ञानम् । तृतीये तु पुनः प्रागनुभूतगोप्रतियोगिकं महिषनिष्ठं वैसादृश्यम् । तदिदं वैसादृश्यप्रत्यभिज्ञानम् । एवमन्येऽपि प्रत्यभिज्ञानभेदा यथाप्रतीति खयमुत्प्रेक्ष्याः । अत्र सर्वत्रापि अनुभवस्मृतिसापेक्षत्वात्तद्धेतुकत्वम् ।
यहांपर पहले उदाहरणमें पूर्वोत्तर दोनों अवस्थाओंमें रहनेवाली जिनदत्तकी एकता ही प्रत्यभिज्ञानका विषय है अर्थात् जिस जिनदत्तको पहले जाना था उसी जिनदत्तको पीछे भी जाना है अतः इस प्रकारके प्रत्यभिज्ञानको एकत्वप्रत्यभिज्ञान कहते हैं। दूसरे उदाहरणमें, जिस गौका पहले अनुभव हो चुका है उससे दूसरे एक गवयमें रहनेवाला गोसादृश्य प्रत्यभिज्ञानका विषय दिखाया गया है। अर्थात् पूर्वानुभूत गौके सदृश गवयको देखकर तथा उस गौका स्मरण करके दोनोंका जोडरूप यह