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किश्च रूपप्रमितेरसन्निकृष्टमेव चक्षुर्जनकम् । अप्राप्य - कारित्वात्तस्य । ततः सन्निकर्षाभावेपि साक्षात्कारिप्रमोत्पतेर्न सन्निकर्षरूपतैव प्रत्यक्षस्य । न चाप्राप्यकारित्वं चक्षुषो प्रसिद्धं प्रत्यक्षतस्तथैव प्रतीतेः । ननु प्रत्यक्षागम्यामपि चक्षुषो विषयप्राप्तिमनुमानेन साधयिष्यामः परमाणुवत् । यथा प्रत्यक्षासिद्धोपि परमाणुः कार्यान्यथानुपपच्यानुमानेन 'साध्यते, तथा चक्षुः प्राप्तार्थप्रकाशकं बहिरिन्द्रियत्वात्वगिन्द्रियवदित्यनुमानात्प्राप्तिसिद्धिः । प्राप्तिरेव हि सन्निकर्षः । ततो न सन्निकर्षस्याव्याप्तिरिति चेन्न, अस्यानुमानाभासत्वात् ।
दूसरी बात यह है कि चक्षु अप्राप्यकारी है । वह पदार्थसे सम्बन्ध न करनेपर भी रूपज्ञानकी उत्पत्तिका कारण होता है, इसलिये उससे सन्निकर्षके अभाव में भी प्रत्यक्षज्ञान होता है । अत एव यह कहना भी कि “सन्निकर्षस्वरूप ही प्रत्यक्ष प्रमाण है" युक्तियुक्त नहीं है । चक्षुका अप्राप्यकारिपना प्रत्यक्ष से सिद्ध है इसलिये उसको असिद्ध नहीं कह सकते । अर्थात् यह प्रत्यक्षसे सिद्ध है कि चक्षुका रूपसे सम्बन्ध न होनेपर भी रूपका प्रत्यक्ष होता है । अतः चक्षु अप्राप्यकारी ही है ।
( शङ्का ) यद्यपि चक्षु प्राप्यकारी है यह प्रत्यक्षसे सिद्ध नहीं है तथापि हम उसको परमाणुकी तरह अनुमानसे सिद्ध करते हैं । अर्थात् जिस प्रकार परमाणु प्रत्यक्षसे सिद्ध न होनेपर भी अनुमानसे सिद्ध किया जाता है कि यदि परमाणु नहीं माना जाय तो स्कन्धरूप कार्य नहीं बनसकता, उसी प्रकार चक्षु प्राप्यकारी है, अर्थात् प्राप्त अर्थका प्रकाशक है यह प्रत्यक्षसे सिद्ध नहीं है तो भी अनुमानसे सिद्ध होता है । क्योंकि वह त्वगिन्द्रियकी तरह बहिरिन्द्रिय है । इस अनुमानसे चक्षुकी न्या० दी ० ३