Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 47
________________ ३६ तत्रेन्द्रियार्थसमवधानसमनन्तरसमुत्थसत्तालोचनानन्तरभावी सत्तावान्तरजातिविशिष्टवस्तुग्राही ज्ञानविशेषोऽवग्रहः । यथायं पुरुष इति । नायं संशयः, विषयान्तरव्युदासेन स्वविषयनिश्चायकत्वात् । तद्विपरीतलक्षणो हि संशयः। यद्राजवार्तिकम् “अनेकार्थानिश्चितापर्युदासात्मकः संशयः, तद्विपरीतोऽवग्रहः" इति । भाष्यं च "संशयो हि निर्णयविरोधी न त्ववग्रहः" इति । (१) इन्द्रिय और अर्थकी योग्यक्षेत्रमें प्राप्ति होनेपर उत्पन्न होनेवाले महासत्ताविषयक दर्शनके अनन्तर अवान्तरसत्ताजातिसे युक्त वस्तुको ग्रहण करनेवाला ज्ञानविशेष अवग्रह कहलाता है । अर्थात् सत्ताके दो भेद हैं एक महासत्ता दूसरी अवान्तरसत्ता । इन्द्रिय और अर्थकी योग्यक्षेत्रमें स्थिति होने पर पहले महासत्ताको विषय करनेवाला दर्शन उत्पन्न होता है फिर उसके अनन्तर ही प्रगट होनेवाले, अवान्तरसत्ताजातिसे युक्त वस्तुको विषयकरनेवाले ज्ञानको अवग्रह कहते हैं। जैसे कि 'यह पुरुष है।' इस ज्ञानको संशय नहीं कह सकते क्योंकि यह (अवग्रह) विषयान्तरका निराकरण और अपने विषयका निश्चय करानेवाला है और संशय इससे विपरीत लक्षणवाला होता है। इसीलिये राजवार्तिकमें कहा है कि "संशयज्ञान, अनेक अर्थोंमेंसे किसीका भी निश्चय, और अपने विषयसे भिन्न विषयका निराकरण नहीं करता । अवग्रह इससे विपरीत है"। इसी प्रकार भाष्यमें (गन्धहस्तिमहाभाष्यमें) भी कहा है कि “संशय निर्णयका विरोधी है, किंतु अवग्रह नहीं।" __ अवग्रहगृहीतार्थसमुद्भूतसंशयनिरासाय यत्न ईहा। यथा पुरुष इति निश्चितेऽर्थे किमयं दाक्षिणात्य उतौदीच्य इति संशये सति दाक्षिणात्येन भवितव्यमिति तन्निरासायेहाख्यं

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