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सूक्ष्माः स्वभावविप्रकृष्टाः परमाण्वादयः, अन्तरिताः कालविप्रकृष्टा रामादयः, दूरार्था देशविप्रकृष्टा मेर्वादयः एते स्वभावकालदेश विप्रकृष्टाः पदार्था धर्मित्वेन विवक्षितास्तेषां कस्यचित्प्रत्यक्षत्वं साध्यम् । इह प्रत्यक्षत्वं प्रत्यक्षज्ञानविषयत्वम् । विषयिधर्मस्य विषयेप्युपचारोपपत्तेः । अनुमेयत्वादिति हेतु:, अम्यादिर्दृष्टान्तः । अस्यादावनुमेयत्वं कस्य - चित्प्रत्यक्षत्वेन सहोपलब्धं परमाण्वादावपि कस्यचित्प्रत्यक्षत्वं साधयत्येव ।
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इसीलिये स्वामी समन्तभद्राचार्यने प्रथम ही महाभाष्यकी आप्तमीमांसा नामक प्रस्तावना में ऐसा कहा है कि:- "सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी न किसीके प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे अनुमेय हैं, जैसे अग्नि आदि । इस अनुमानसे सर्वज्ञ सिद्ध होता है ।" सूक्ष्म अर्थात् जो स्वभावसे ही विप्रकृष्ट
जैसे परमाणु आदि । अन्तरित अर्थात् जो कालसे विप्रकृष्ट हैं जैसे राम, रावण आदि । दूरार्थ, अर्थात् जो क्षेत्रसे विप्रकृष्ट
जैसे मेरु आदि । स्वभाव, काल, देशकी अपेक्षा व्यवधानसहित धर्मिरूप पदार्थोंका किसी न किसीको प्रत्यक्ष होना साध्य है । यहांपर प्रत्यक्षशब्दसे 'प्रत्यक्षज्ञानका विषय' ऐसा अर्थ समझना चाहिये, क्योंकि यहांपर विषयमें विषयीके धर्मका उपचार किया है । अनुमेयत्व हेतु है और अभ्यादिक दृष्टान्त हैं । अनि आदिक विषयमें किसी न किसीके प्रत्यक्षके साथ देखागया अनुमेयत्वहेतु परमाणु आदिकमें भी किसी न किसीके द्वारा प्रत्यक्ष
१ पक्षरूप से जहांपर कुछ भी सिद्ध किया जाय । २ जो सिद्ध किया जाय उसको साध्य कहते हैं । ३ मुख्य के अभाव में प्रयोजन तथा निमित्तवश उपचारकी प्रवृत्ति होती है ।