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घट एव विषयो, न पर इति । अर्थजत्वं हि विषयं प्रति नियमकारणं, तजन्यत्वात् । तद्विषयमेव चैतदिति । तत्तु भवता नाभ्युपगम्यते । इति चेत्, योग्यतैव विषयं प्रति नियमकारणमिति ब्रूमः।
(शङ्का) जब ज्ञान, पदार्थसे उत्पन्न होनेवाला ही नहीं है, तो अर्थसे सर्वथा भिन्न होकर वह (ज्ञान) उसका (अर्थका) प्रकाशक ही कैसे हो सकता है ?
(उत्तर) जिस प्रकार दीपक, घटादिकसे उत्पन्न नहीं होता तथापि वह घटादिकोंको प्रकाशित करता है । इस दृष्टान्तको देखकर तुमको संतोष करना चाहिये। अर्थात् ज्ञान दीपककी तरह विषयसे उत्पन्न होनेवाला न होकर भी अपने विषयको प्रकाशित करता है।
(शङ्का) ज्ञानका विषयके प्रति नियम किस प्रकार होता है कि घटज्ञानका विषय घट ही है, पट नहीं? हम तो अर्थसे उत्पन्न होना ही विषयके प्रति नियमका कारण मानते हैं। अर्थात् जो ज्ञान जिस विषयसे उत्पन्न हुआ हो वह उसी पदार्थको जनावेगा; परन्तु तुम तो ऐसा मानते नहीं-अर्थात् ज्ञानकी अर्थसे उत्पत्ति नहीं मानते, फिर विषयका नियम किस प्रकार होगा?
(उत्तर) उस विषयके प्रति नियमका कारण योग्यता है। अर्थात् जिस विषयकी योग्यता जहां होती है वहां उसी विषयका ज्ञान होता है।।
का नाम योग्यतेति, उच्यते-खावरणक्षयोपशमः। तदुक्तं "स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थ व्यवस्थापयति" इति । एतेन तदाकारत्वात्तत्प्रकाशकत्वमित्यपि प्रत्युक्तम्, अतदाकारस्यापि प्रदीपादेस्तत्प्रकाशकत्वदर्शनात् । ततस्तदाकारवत्तजन्यत्वमप्रयोजकं प्रामाण्ये । सविकल्पक