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भूतसामान्यविषयत्वेनार्थजत्वाभावात्' इति चेन्न, अर्थस्यालोकवज्ज्ञानकारणत्वानुपपत्तेः ।
( शङ्का ) निर्विकल्पक ही प्रत्यक्षप्रमाण हो सकता है। क्योंकि वह अर्थजन्य है- अर्थात वही ( निर्विकल्पक ) परमार्थ है और अपने विषयभूत नीलादिकसे उत्पन्न होनेवाला है । सविकल्पक प्रत्यक्षप्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि वह अपरमार्थभूत सामान्यको विषय करनेवाला है, इस लिये अर्थज नहीं है ।
( उत्तर ) यह शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि आलोककी तरह अर्थ भी ज्ञानके प्रति कारण नहीं है । अर्थात् वह अर्थज तो तब होता जब कि ज्ञानके प्रति अर्थ कारण होता; परन्तु आलोककी तरह अर्थ भी ज्ञानके प्रति कारण सिद्ध नहीं होता ।
तद्यथा, अन्वयव्यतिरेकगम्यो हि कार्यकारणभावः । तत्रालोकस्तावन्न ज्ञानकारणं तदभावेपि नक्तञ्चराणां मार्जारादीनां ज्ञानोत्पत्तेः, तद्भावेपि घूकादीनां तदनुत्पत्तेः । तद्वदर्थोपि न ज्ञानकारणं, तदभावेपि केशमशकादिज्ञानोत्पत्तेः । तथा च, कुतोर्थजत्वं ज्ञानस्य ? तदुक्तं परीक्षामुखे "नार्थालोकौ कारणम्" इति । प्रामाण्यस्य चार्थाव्यभिचार एव निबन्धनं, न त्वर्थजन्यत्वं, स्वसंवेदनस्य विषयाजन्यत्वेपि प्रामाण्याभ्युपगमात् । न हि किञ्चित्स्वस्मादेव जायते ।
जिन दो पदार्थोंमें परस्पर अन्वय व्यतिरेक घटित होता है उन्हीं दो पदार्थों में कार्यकारणभाव संभव माना जाता है । अर्थात् जिसके रहनेपर नियमसे कार्य उत्पन्न हो उसको अन्वय कहते हैं । और जिसके अभाव में नियमसे कार्य न हो उसको व्यतिरेक कहते हैं। किसी कार्यकी उत्पत्ति कहीं हुई हो तो वहांपर जो अवश्य विद्यमान रहै और जहां वह विद्यमान न रहता