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• मीमांसकमतवाले प्रामाण्यकी उत्पत्ति स्वतः मानते हैं। प्रामाण्यकी खतः उत्पत्तिका मतलब यह है कि ज्ञान सामान्यकी उत्पत्तिमें जो सामग्री लगती है उसीसे उस (शान )में प्रामाण्य भी उत्पन्न हो जाता है, उसके सिवा किसी अधिक सामग्रीकी आवश्यकता नहीं होती। मीमांसकोंके ग्रन्थों में ऐसा ही कहा है कि "प्रामाण्यकी उत्पत्ति होनेमें ज्ञानके उत्पादक कारणोंको छोड़कर दूसरे किसी नवीन कारणकी अपेक्षा न होना ही स्वतस्त्व है।
न ते मीमांसकाः ज्ञानसामान्यसामग्र्याः संशयादावपि ज्ञानविशेषे सत्त्वात् । वयं तु ब्रूमहे ज्ञानसामान्यसामग्र्याः साम्येपि संशयादिरप्रमाणं, सम्यग्ज्ञानं प्रमाणमिति विभागस्तावदनिवन्धनो न भवति । ततः संशयादौ यथा हेत्वन्तरमप्रामाण्ये दोषादिकमङ्गीक्रियते तथा प्रमाणेपि प्रामाण्यनिबन्धनमन्यदवश्यमभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा प्रमाणाप्रमाणविभागानुपपत्तेः।
परन्तु वे यथार्थ मीमांसक नहीं हैं क्योंकि ज्ञानसामान्यकी उत्पादक जोसामग्री है वह संशयादिकमें भी-जो कि ज्ञानविशेष हैं-रहती है, किंतु उसमें प्रमाणता उत्पन्न नहीं होती। हम तो इस विषयमें ऐसा कहते हैं कि यद्यपि ज्ञानसामान्यकी उत्पादक सामग्री, समीचीन और मिथ्या दोनों ही प्रकार के शानोंमें समान है तथापि “संशयादिक अप्रमाण हैं, सम्यग्ज्ञान प्रमाण है" यह विचारभेद निष्कारण नहीं हो सकता । इसलिये जिस प्रकार संशयादिकमें अप्रमाणताके उत्पादक कारण, ज्ञानसामान्यकी सामग्रीके सिवा दूसरे दोषादिक मीमांसकोंने माने हैं, उसी प्रकार समीचीन ज्ञानमें प्रमाणताके उत्पादक कारण भी
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१ समीचीन विचार करनेवालेको भी मीमांसक कहते हैं।