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समय अनुभूतिशब्दको भावसाधन माना जायगा, उस समय करणसाधन प्रमाणमें, यह प्रमाणका लक्षण घटित नहीं हो सकता और जिस समय करणसाधन माना जायगा, उस समय भावसाधन प्रमाणमें यह लक्षण घटित नहीं हो सकता । अतः यह भी प्रमाणका लक्षण सुलक्षण नहीं है। ___ "प्रमाकरणं प्रमाणम्" इति नैयायिकाः । तदपि प्रमादकृतं लक्षणमीश्वराख्ये तदङ्गीकृत एव प्रमाणे अन्याः । अधिकरणं हि महेश्वरः प्रमाया, नतु करणम् । न चायमनुक्तोपालम्भः "तन्मे प्रमाणं शिवः" इति यौगाग्रेसरेणोदयनेनोतत्वाच्च । तत्परिहाराय केचन बालिशाः साधनाश्रययोरन्यतरत्वे सति प्रमाव्यातं प्रमाणमिति वर्णयन्ति । तथापि साधनाश्रयान्यतरपोलोचनायां साधनमाश्रयो वेति फलति । तथा च परस्पराव्याप्तिलेक्षणस्य ।
नैयायिकोंका सिद्धान्त है कि 'प्रमाके प्रति जो करण है वह प्रमाण है।' परन्तु उनका भी यह सिद्धान्त प्रमादकृत ही है। क्योंकि उन्हींके माने हुए ईश्वररूप प्रमाणमें इस लक्षणके घटित न होनेसे इसमें अव्याप्ति दोष आता है। क्योंकि महेश्वर प्रमाका अधिकरण होसकता है, न कि करण । उन्हों (नैयायिकों)ने महेश्वरको प्रमाण नहीं माना है केवल हम ही, मिथ्या उपालम्भ देते हों, यह बात नहीं है। क्योंकि नैयायिकोंके अग्रेसर उदयनाचार्यने कहा है कि "तन्मे प्रमाणं शिवः" अर्थात् वह शिव मुझको प्रमाण है। __ कुछ अज्ञानी इस दोषका परिहार ऐसा करते हैं कि "करण और अधिकरण इन दोनोंमेंसे कोई एक जो प्रमासे व्याप्त हो वह प्रमाण है।” परन्तु यह उनका समाधान ठीक नहीं है । क्योंकि यदि इस बातपर भी विचार किया जाय कि