Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 30
________________ १९ दूसरे ही मानने चाहिये। वे दूसरे विशेष कारण नैर्मल्य आदिक गुण ही हो सकते हैं । नहीं तो यह प्रमाण है और यह अप्रमाण है, ऐसा विभाग कैसे हो सकता ? एवमप्यप्रामाण्यं परतः प्रामाण्यं तु स्वत इति न वक्तव्यं, विपर्ययेऽपि समानत्वात् । शक्यं हि वक्तुमप्रामाण्यं स्वतः प्रामाण्यं तु परत इति । तस्मादप्रामाण्यवत्प्रामाण्यमपि परत एवोत्पद्यते । नहि पटसामान्य सामग्री रक्तपटे हेतुस्तद्वन्न ज्ञानसामान्यसामग्री प्रमाणज्ञाने हेतु:, भिन्नकार्ययोर्भिन्नकारणप्रभवत्वावश्यम्भावात् । इसपर कदाचित् आप यह कहेंगे कि "अप्रामाण्यकी उत्पत्ति में विशेष कारणों की अपेक्षा होती है और प्रामाण्य स्वतः ही उत्पन्न होता है ।" परंतु यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि यदि हम इससे उलटा कहने लगे तो उस कथनमें भी कोई बाधक नहीं हो सकता । अर्थात् हम यह बात कह सकते हैं कि "अप्रामाण्य स्वतः होता है और प्रामाण्य परतः उत्पन्न होना चाहिये । " इसलिये अप्रामाण्यकी तरह प्रामाण्यकी उत्पत्ति होना भी आपको इतर कारणोंसे ही मानना चाहिये । जिस प्रकार वस्त्रसामान्यकी सामग्री रक्त वस्त्रका कारण नहीं होसकती उसी प्रकार ज्ञानसामान्यकी सामग्री भी प्रमाणज्ञानका कारण नहीं होसकती । क्योंकि यह नियम है कि “भिन्न २ कार्योंकी उत्पत्ति भिन्न २ कारणोंके बिना नहीं होती ।" कथं तस्य ज्ञप्तिः ? अभ्यस्ते विषये स्वतः, अनभ्यस्ते तु परतः । कोयमभ्यस्तो विषयः को वानभ्यस्तः १ उच्यतेपरिचितखग्रामतटाकजलादिरभ्यस्तः, तद्व्यतिरिक्तोऽनभ्यस्तः । किमिदं स्वत इति किं नाम परत इति ? ज्ञानज्ञापकादेव प्रामाण्यस्य ज्ञप्तिः स्वत इति । ततोतिरिक्ताज्ज्ञप्तिः परत इति ।

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