Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 33
________________ २२ प्ति स्वतः ही होती है और अनभ्यस्त विषयमें परतः होती है तो अब यह सिद्ध करना कठिन है कि 'प्रामाण्यकी शप्ति भी परतः ही होती है। अतः यह सिद्ध हुआ कि प्रामाण्यकी उत्पत्ति परतः ही होती है और शप्ति कदाचित् ( अभ्यस्त विषयमें) स्वतः भी होती है, कदाचित् (अनभ्यस्त विषयमें) परतः भी होती है। ऐसा ही शप्तिके विषयमें प्रमाण परीक्षामें भी कहा है कि: प्रमाणादिष्टसंसिद्धिरन्यथातिप्रसङ्गतः। प्रामाण्यं तु स्वतः सिद्धमभ्यासात्परतोन्यथा ॥१॥ अर्थात् जिस प्रमाणसे इष्टकी सिद्धि होती है और उसके विपरीत अर्थात् अप्रमाणसे इष्टकी सिद्धि नहीं होती, उसका प्रमाणपना अभ्यासदशामें स्वतः सिद्ध है और अनभ्यासदशामें परतः उत्पन्न होता है। तदेवं सुव्यवस्थितेऽपि प्रमाणस्वरूपे दुरभिनिवेशवशङ्गतैः सौगतादिभिरपि कल्पितं प्रमाणलक्षणं सुलक्षणमिति येषां भ्रमस्ताननुगृह्णीमः । तथा हि । "अविसंवादि ज्ञानं प्रमाणम्" इति बौद्धाः । तदिदमविसंवादित्वमसम्भवित्वादलक्षणम् । बौद्धेन हि प्रत्यक्षमनुमानमिति प्रमाणद्वयमेवानुमन्यते । तदुक्तं न्यायबिन्दौ "द्विविधं सम्यग्ज्ञानं प्रत्यक्षमनुमानं च" इति । तत्र न तावत्प्रत्यक्षस्याविसंवादित्वं, तस्य निर्विकल्पकत्वेन स्वविषयानिश्चायकस्य समारोपविरोधित्वाभावात् । नाप्यनुमानस्य, तन्मतानुसारेण तस्याप्यपरमार्थभूतसामान्यगोचरत्वादिति । यद्यपि पूर्वोक्त रीतिके अनुसार प्रमाणका स्वरूप सिद्ध होचुका, तो भी जो लोग, दुराग्रहके वशीभूत बौद्ध आदिकों

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