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उसका ज्ञान किस तरह होता है ? अर्थात् यह मेरा ज्ञान प्रमाण है, यह किस तरह मालूम होता है ?
(उत्तर ) प्रामाण्यका ज्ञान, अभ्यस्त विषयमें स्वतः होता है और अनभ्यस्त विषयमें परतः होता है । अभ्यस्त विषय कौन? और अनभ्यस्त कौन ? (उत्तर) जो अपने परिचित प्रामादिके तालाव आदिका जलादिक हो उसको अभ्यस्त कहते हैं और जो परिचित नहीं हो उसको अनभ्यस्त कहते हैं । (प्रश्न ) 'स्वतः' क्या? और 'परतः क्या ? (उत्तर) जिनके द्वारा ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, उन्हींसे ज्ञानमें रहनेवाले प्रामाण्यका भी ज्ञान होना, इसको खतः कहते हैं । जहां प्रामाण्यकी उत्पत्ति होनेमें शानोत्पादक कारणके सिवा अधिक किसी कारणकी अपेक्षा पड़े तो उसको परतः कहते हैं।
तत्र तावदभ्यस्तविषये जलमिदमिति ज्ञाने जाते ज्ञानस्वरूपज्ञप्तिसमय एव तद्गतं प्रामाण्यमपि ज्ञायत एव, अन्यथोत्तरक्षण एव निश्शङ्कप्रवृत्तेरयोगात् । अस्ति हि जलज्ञानोत्तरक्षण एव निश्शङ्का प्रवृत्तिः । अनभ्यस्ते तु विषये जलज्ञाने जाते जलज्ञानं मम जातमिति ज्ञानस्वरूपनिर्णयेपि प्रामाण्यनिर्णयोन्यत एव । अन्यथोत्तरकालं सन्देहानुपपत्तेः । अस्ति हि सन्देहो जलज्ञानं मम जातं तत्कि जलमुत मरीचिकेति । ततः कमलपरिमलशिशिरमन्दमरुत्प्रचारप्रभृतिभिरवधारयति, प्रमाणं प्राक्तनं जलज्ञानं, कमलपरिमलाद्यन्यथानुपपत्तेरिति । • अभ्यस्त विषयमें 'यह जल है' इस प्रकार ज्ञान होनेपर, जिस समय उस ज्ञानके स्वरूपका ज्ञान होता है उसी समय ज्ञाननिष्ठ प्रामाण्यका भी शान होजाता है । अर्थात् अभ्यस्त विषयमें जिस समय यह ज्ञान होता है कि 'मुझको जलज्ञान हुआ है' उसी समय यह भी मालूम होजाता है कि 'यह मेरा ज्ञान प्रमाण