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(समीचीन ) है । यदि उसी समय 'प्रामाण्यकी उत्पत्ति नहीं होती' ऐसा माना जाय तो शानके अनंतर ही प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिये; परन्तु जलज्ञानके उत्तरक्षणमें ही निःशङ्क प्रवृत्ति होती है । अनभ्यस्त विषयमें जलज्ञानके होनेपर 'मुझको जलज्ञान हुआ है' इस प्रकार ज्ञानखरूपका निर्णय होनेपर भी उस शानमें प्रमाणताका निर्णय दूसरे कारणोंसे ही होता है, नहीं तो उत्तर कालमें सन्देह नहीं होना चाहिये । किंतु अनभ्यस्त विषयमें 'मुझको जो यह जलज्ञान हुआ है वह वास्तवमें जल ही है अथवा मरीचिका है' इस प्रकार सन्देह उत्पन्न होता है और पीछेसे (सन्देह होनेके बाद) कमलोंकी गन्ध, शीतल वायुका चलना, इत्यादि कारणोंको देखकर जिज्ञासु मनुष्य निश्चय करता है कि पहले जो मुझको जलका ज्ञान हुआ था वह वास्तविक था, क्योंकि यदि यहांपर जल न होता तो कमलकी गन्ध आदि उपलब्ध नहीं हो सकती थीं।
उत्पत्तिवत्प्रामाण्यस्य ज्ञप्तिरपि परत एवेति योगाः । तत्र प्रामाण्यस्योत्पत्तिः परत इति युक्तम् । ज्ञप्तिः पुनरभ्यस्तविषये स्वत एवेति स्थितत्वाज्ज्ञप्तिरपि परत एवेत्यवधारणानुपपत्तिः । ततो व्यवस्थितमेतत्प्रामाण्यमुत्पत्तौ परत एव, ज्ञप्तौ तु कदाचित् स्वतः कदाचित् परत इति । तदुक्तं प्रमागपरीक्षायां ज्ञप्ति प्रति
प्रमाणादिष्टसंसिद्धिरन्यथातिप्रसङ्गतः। प्रामाण्यं तु स्वतः सिद्धमभ्यासात्परतोऽन्यथा ॥१॥ इति । प्रामाण्यकी उत्पत्तिकी तरह, ज्ञप्ति भी परतः ही होती है, ऐसा योगमतवाले (पातञ्जल ) कहते हैं। यहांपर प्रामाण्यकी उत्पत्ति परतः होती है, यह कहना तो ठीक है परन्तु जब कि यह बात पहले सिद्ध हो चुकी है कि अभ्यस्त विषयमें प्रामाण्यकी