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कहा है कि - " प्रमाणकी प्रमाणता यही है कि जो प्रमितिरूप क्रियाके प्रति साधकतमरूपसे करण हो" ।
नन्वेवमप्यक्षलिङ्गादावतिव्याप्तिर्लक्षणस्य तत्रापि प्रमिति - रूपं फलं प्रति करणत्वात् । दृश्यते हि चक्षुषा प्रमीयते, धूमेन प्रमीयते, शब्देन प्रमीयते इति व्यवहारः इति । चेन्न, अक्षादेः प्रमितिं प्रत्यसाधकतमत्वात् । तथा हि
( शङ्का ) प्रमाणका ऐसा लक्षण मानने पर भी, इन्द्रिय लिङ्गादिकमें इस लक्षणकी अतिव्याप्ति होती है । क्योंकि प्रमितिके प्रति इन्द्रिय तथा लिङ्गादिक भी करण हैं । ऐसा लोकमें व्यवहार देखा जाता है कि, मैं चक्षुके द्वारा इस पदार्थको जान रहा हूं, अथवा धूमके द्वारा इस पदार्थको जान रहा हूं, यद्वा अमुक वस्तुको शब्दके द्वारा जान रहा हूं ।
(उत्तर) ऐसा कहना ठीक नहीं है । क्योंकि इन्द्रियादिक प्रमिति के प्रति साधकतम नहीं हैं। साधकतम क्यों नहीं हैं ? इस बातको आगे स्पष्ट रीति से दिखलाते हैं ।
प्रमितिः प्रमाणस्य फलमिति न कस्यापि विप्रतिपत्तिः । सा चाज्ञाननिवृत्तिरूपा तदुत्पत्तौ करणेन भवता सता ताव - दज्ञानविरोधिना भवितव्यम् । न चाक्षादिकमज्ञानविरोधि, अचेतनत्वात् । तस्मादज्ञानविरोधिनश्चेतनधर्मस्यैव करणत्वमुचितम् । लोकेऽप्यन्धकारविघटनाय तद्विरोधी प्रकाश एवोपास्यते, न पुनर्घटादि, तदविरोधित्वात् ।
प्रमिति, प्रमाणका फल है इस विषय में किसीका भी विवाद नहीं है । यह प्रमिति अज्ञानकी निवृत्तिरूप है इसलिये उसकी उत्पत्तिमें जो करण हो वह अज्ञानका विरोधी होना चाहिये । इन्द्रियादिक जो करण कहे वे अज्ञानके विरोधी नहीं