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कि इन्द्रियां प्रमितिके प्रति करण हो सकती हैं परंतु यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि यह प्रतीति जो होती है वह उपचारसे होती है । कुछ २ ज्ञानों की उत्पत्तिमें ये इंद्रियाँ सहायक होती हैं अवश्य यही कारण है कि ऐसी उपचारयुक्त प्रतीति होती है । सहकारी होनेसे इंद्रियोंको साधक कह सकते हैं । परन्तु वे साधक हैं एतावता करण भी हो गई यह बात स्वीकृत नहीं हो सकती है, क्योंकि करण उसीको कहना चाहिये जो क्रियाके प्रति, अतिशय करके साधक हो । जैनेन्द्र व्याकरणमें भी करणका लक्षण यही कहा है कि " साधकतमं करणः” अर्थात् जिसके व्यापारके अनन्तर नियमसे कार्यकी उत्पत्ति हो उसको करण कहते हैं । इन्द्रियां प्रमिति के प्रति साधक होनेपर भी साधकतम न होनेके कारण करण नहीं हैं । अतएव प्रमाणका जो यह लक्षण किया था कि प्रमितिके प्रति जो साधकतम हो उसको प्रमाण कहते हैं इस लक्षणकी इन्द्रियादिकोंमें, अतिव्याप्ति नहीं आसकती ।
अथापि धारावाहिकबुद्धिष्वतिव्याप्तिस्तासां सम्यग्ज्ञानत्वात् । न च तासामार्हतमते प्रामाण्याभ्युपगम इति । उच्यतेएकस्मिन्नेव घटे घटविषयाज्ञानविघटनार्थमाद्ये ज्ञाने प्रवृत्ते तेन घटप्रमितौ सिद्धायां पुनर्घटोयं घटोयमित्येवमुत्पन्नान्युत्तरोतरज्ञानानि खलु धारावाहिकज्ञानानि । न ह्येषां प्रमितिं प्रति साधकतमत्वं प्रथमज्ञानेनैव प्रमितेः सिद्धत्वात् । कथं तत्र लक्षणमतिव्याप्नोति तेषां गृहीतग्राहित्वात् ।
( शङ्का ) यद्यपि इन्द्रियादिकों में इस लक्षणकी अतिव्याप्ति नहीं है तथापि धारावाहिक बुद्धिमें, अतिव्याप्ति, अवश्य हो जायगी । अर्थात् ऐसा लक्षण माननेपर धारावाहिक बुद्धिको भी प्रमाण मानना पड़ेगा । परन्तु, आर्हत मतमें (जैनमतमें) इसको