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जिसमें विपरीत एक कोटिका निश्चय हो उसको विपर्यय कहते हैं । जैसे सीपमें यह चांदी है ऐसा ज्ञान होना । यहांपर भी सीपमें चांदीके सदृश चाकचिक्य आदि सदृश धर्मोको देखकर उसमें ( सीपमें ) उसके विपरीत चांदीका शान होता है। __ यह क्या है, इस प्रकारका जो ज्ञान होता है, उसको अनध्य. वसाय कहते हैं । जैसे रास्ता चलनेवालेको तृण या कांटे आदिके स्पर्शमात्रसे यह कुछ पदार्थ है ऐसा ज्ञान होता है उसको अनध्यवसाय कहते हैं । इस शानमें विरुद्ध दो या तीन आदि कोटियोंका अवलम्बन नहीं है, इसलिये इसको संशय नहीं कह सकते । विपरीत एक कोटिका निश्चय नहीं है, इसलिये यह विपर्यय भी नहीं है। अतः यह दोनोंसे विलक्षण एक तीसरा ही अनध्यवसाय नामक मिथ्याज्ञान है ।
इन तीनोंमें ही अपने २ विषयका यथार्थ निश्चय नहीं होता इसलिये इन तीनों ज्ञानोंको मिथ्या कहते हैं । परन्तु सम्यरज्ञान ऐसा नहीं है, अर्थात् उसमें यथार्थ प्रतिभास होता है। इसलिये जो ज्ञानके साथ सम्यक् पद लगाया है, उससे उन तीनों मिथ्या ज्ञानोंका निराकरण होजाता है।
ज्ञानशब्दसे प्रमाता और प्रेमितिकी व्यावृत्ति होती है । क्योंकि यद्यपि प्रमाता और प्रमितिम निर्दोषपना होनेसे समीची. नता है, तथापि ज्ञानपना नहीं है।
ननु प्रमितिकर्तुः प्रमातुतृित्वमेव न ज्ञानत्वमिति, यद्यपि ज्ञानपदेन प्रमातुव्यावृत्तिस्तथापि प्रमितिने व्यावर्तयितुं शक्या तस्या अपि सम्यग्ज्ञानत्वादिति चेद्भवेदेवं यदि भावसाधनमिह ज्ञानपदम् । करणसाधनं खल्वेतज्ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानमिति ।
१ निश्चय करनेवाला। २ प्रमाणके फलको प्रमिति कहते हैं, ऐसा आगे कहेंगे।