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करनेके लिये दिया है। क्योंकि ये ज्ञान अप्रमाण हैं। इनकी अप्रमाणता आगे दिखाते हैं
विरुद्धानेककोटिस्पर्शि ज्ञानं संशयः । यथायं स्थाणुर्वा पुरुषो वेति । स्थाणुपुरुषसाधारणोर्ध्वतादिदर्शनात्तद्विशेषस्य वक्रकोटरशिरःपाण्यादेः साधकप्रमाणस्याभावादनेककोट्यवलम्बित्वं ज्ञानस्य । विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः। यथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति ज्ञानम् । अत्रापि सादृश्यादिनिमित्तवशाच्छुक्तिविपरीते रजते निश्चयः । किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः। यथा पथि गच्छतस्तुणस्पर्शादिज्ञानम् । इदं हि नानाकोट्यवलम्बनाभावान संशयः। विपरीतैककोटिनिश्चयाभावान विपर्ययः । इति पृथगेव । एतानि च स्वविषयप्रमितिजनकत्वाभावादप्रमाणानि ज्ञानानि भवन्ति । सम्यग्ज्ञानानि तु न भवन्तीति सम्यक्पदेन व्युदस्यन्ते । ज्ञानपदेन प्रमातुः प्रमितेश्वव्यावृत्तिः । अस्ति हि निर्दोषत्वेन तत्रापि सम्यक्त्वम् । न तु ज्ञानत्वम् ।
परस्पर विरुद्ध अनेक कोटियोंका (पक्ष, या विषयोंका ) अवलंबन करनेवाले ज्ञानको संशय कहते हैं । जैसे किसी स्थाणु (वृक्षके ढूंठ) या पुरुषमें यह स्थाणु है अथवा पुरुष ऐसा ज्ञान होना । यहां पर दोनोंमेंसे किसी भी पक्षका निश्चय नहीं है। दोनोंमें ही सन्देह है । इसलिये इस ज्ञानको संशय कहते हैं। .
स्थाणु और पुरुषादिक दोनों ही कोटियोंमें दीखनेवाले ऊंचाई आदि साधारण धौके देखनेपर तथा उनके विशेष धर्म जैसे स्थाणुके वककोटरादि (खोखल) और पुरुषके सिर हाथ आदि न दीखने पर किन्तु इन विशेष धर्मोंका स्मरण उठ आने पर दोनों कोटियोंका अवलम्बन करनेवाला संशयज्ञान उत्पन्न होता है।