________________
( १८ )
३. विशेषणात्मक ४. वृत्त्यात्मक
व्यौत्पत्तिक- व्युत्पत्तिजन्य निरुक्त के दो प्रकार हैं। एक वे निरुक्त हैं जो संपूर्णपद की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं और एक वे हैं जो अक्षरों की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । संपूर्णपदव्याख्यात्मनिरुक्त, जैसे-खण । 'खीयते इति खणो-जो क्षीण होता है, बीतता है, वह क्षण है।
अक्षरव्याख्यात्मकनिरुक्त प्रत्येक अक्षर की अलग-अलग व्याख्या करते हुए संपूर्णपद का एक विशेष अर्थ प्रस्तुत करते हैं, जैसे-खंध । स्कन्दन्तिशुष्यन्ति धीयन्ते च पोष्यन्ते च पुद्गलानां विचटनेन चटनेन स्कन्धाः । जो पुद्गलों के विघटन से क्षीण और संघटन से पुष्ट होते हैं, वे स्कन्ध हैं।
पारिभाषिक- इस श्रेणी में उन सभी निरुक्तों का समाहार किया जा सकता है जो एक परिभाषा प्रस्तुत करते हैं। जैसे-खेयण्ण । 'खेदः अभ्यासस्तेन जानातीति खेदज्ञः'--जो खेद/अभ्यास से आत्मा को जानता है, वह खेदज्ञ है । जो खेद/जन्ममरण के श्रम को जानता है, वह खेदज्ञ है।
विशेषणात्मक- ऐसे शब्द जिनमें विशेषण जोड़कर विशेष अर्थ का निर्धारण किया जाता है, वे विशेषणात्मक निरुक्त हैं, जैसे-कुकुटी । 'कुत्सिता कुटी कुकुटी' -जो कुत्सित पदार्थों से भरा हुआ कुटीर है, वह कुकुटी/शरीर
वृत्त्यात्मक-कुछ निरुक्त समास, तद्धित, कृदन्त आदि से निष्पन्न हैं। समास से निष्पन्न होने वाले निरुक्तों में तृतीया, पंचमी, सप्तमी आदि विभक्तियों के समस्त-पदों की प्रधानता है। 'क्षत्रेण धर्मेण जीवन्ति इति क्षत्रिया:'-जो क्षात्रधर्म से जीवित रहते हैं, वे क्षत्रिय हैं। तद्धित से निष्पन्न निरुक्त, जैसे-आदित्य आदौ भव आदित्यः ।।
कृदन्त जन्य निरुक्तों के लिए परिशिष्ट १ द्रष्टव्य है ।
निरुक्तों की परम्परा बहुत प्राचीन है, जिसका निर्देश भूमिका में किया गया है। मूल आगमग्रन्थों-सूत्रकृतांग, भगवती, नंदी, अनुयोगद्वार आदि में भी इसके बीज उपलब्ध होते हैं, जैसे-आणमइ-पाणमइ तम्हा पाणे (भगवती २/१५) । व्याख्याग्रंथों में निरुक्तों की दृष्टि से उत्तराध्ययनचूणि सर्वाधिक समृद्ध प्रतीत होती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org