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गुण का स्वरूप
होता; इसलिए द्रव्य और गुणों का अभिन्नपना है । "
इस कृति में जीव के श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र गुणों का स्वरूप स्पष्ट किया जा रहा है, अतः गुणों का परस्पर सम्बन्ध समझना भी बहुत आवश्यक है।
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जैसे - सुवर्ण में पीलापना, भारीपना, चिकनापना आदि अनेक गुण एक साथ रहते हुए भी अपने-अपने स्वरूप से भिन्न ही हैं, उसीप्रकार श्रद्धा आदि अनन्त गुण एक जीव द्रव्य में रहते हुए भी वे अपने-अपने लक्षण से भिन्न-भिन्न ही हैं।
प्रत्येक गुण अन्य गुण से भिन्न होता है; इसका ज्ञान कराने के लिए ही आचार्य उमास्वामी ने 'द्रव्याश्रयाः निर्गुणा गुणाः ' ऐसा कहा है अर्थात् गुण, द्रव्य के आश्रय से रहते हैं और अन्य गुण से रहित होते हैं।
अनन्त गुणों का क्षेत्र एक ही द्रव्य होने पर भी वे अनन्त गुण अपने-अपने भिन्न-भिन्न लक्षण के कारण भिन्न-भिन्न ही रहते हैं एवं भिन्न-भिन्न ही अपने अर्थक्रियाकारित्वरूप कार्य करते हैं।
जीव के असंख्यात प्रदेशों में श्रद्धा आदि अनन्त गुण एक साथ व्यापकरूप से एक समय में रहते हैं और अपने-अपने स्वभाव के अनुसार अलग-अलग कार्य करते हैं।
जिससमय श्रद्धा गुण के कारण प्रतीति, विश्वास, आस्था और रुचिरूप एक कार्य जीवद्रव्य में चलता रहता है, उसीसमय ज्ञान गुण द्वारा जानना, समझना भी चलता ही रहता है तथा उसीसमय चारित्र गुण भी अपनी स्वभावगत विशेषता से लीन होना, मग्न होना, करना इत्यादिरूप कार्य करता ही रहता है। कोई भी गुण कार्य, अर्थात् परिणमन के बिना रहता ही नहीं ।
रमण
यहाँ तो मात्र श्रद्धा आदि तीन प्रमुख गुणों को लेकर ही चर्चा चल रही है; परन्तु गुण तो अनन्त हैं और उन अनन्त गुणों का अपना-अपना अलग-अलग कार्य एक साथ चलता ही रहता है।