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मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र करने में मैंने यथायोग्य सहयोग दिया था। उनके इन पत्रो में उसी विपय का खास आलेखन हुआ है।
उक्त "प्रभावक चरित" का मेरे द्वारा किया गया विशिष्ट संपादन सीधी जैन ग्रथमाला मे सन् १९४० मे प्रकाशित हुआ।
८-आठवे स्थान पर स्वर्गीय पण्डित महावीर प्रसादजी द्विवेदी के पत्र संग्रहित हैं। वास्तव में ये पत्र सर्वप्रथम स्थान में मुद्रित होने | योग्य है परन्तु समय पर पत्र हाथ मे न आने से ये इस प्रकार बाद में
दिये गये हैं।
इनके विषय में इस परिचय के प्रारभ मे ही यथायोग्य लिख दिया गया है।
E-- संग्रह के नौवे स्थान में स्व. डॉ. ताराचन्द राय के कुछ पत्र हैं। इन डॉ. राय से मेरा परिचय जर्मनी के बलिन शहर में हुआ। ये वहाँ के एक पुराने राष्ट्रभक्त एवं हिन्दी के प्रचारक थे। प्रथम विश्वयुद्ध मे तत्कालीन भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध जिन अनेक राष्ट्रभक्त भारतीयो ने जर्मनी मे आन्दोलन किया उन्ही में से ये भी एक विशिष्ट आन्दोलनकारी व्यक्ति थे। इसलिये जर्मनी की शरण मे ही इनको सरक्षण मिला था। भारत में आने की इनको इजाजत नहीं मिली । ये हिन्दी भाषा के बड़े अच्छे वक्ता थे । जर्मनी में भारतीय संस्कृति के विपय मे, ये अनेक युनिवर्सिटियो मे व्याख्यान दिया करते थे। जर्मन भापा पर इनका असाधारण प्रभुत्व था। महाकवि गुरुदेव श्री रवीन्द्रनाथ प्रथम बार जब जर्मनी गये, तब उनके व्याख्यानो का ये अविकल जर्मन अनुवाद तत्काल करते रहते थे और उससे गुरुदेव रवीन्द्रनाथजी बहुत प्रसन्न हुये थे। मैं १९२२ के अगस्त
महीने मे जब बलिन गया तब इनसे मेरी भेट हुई। वाद में मैने जब . .. वहां भारत जर्मनी मित्रता के सगठन के निमित्त "हिन्दुस्तान हाऊस"
'नामक एक विशिष्ट कार्यालय की स्थापना की तो उसमे इनका सबसे अविक सहयोग एव मार्गदर्शन मिला।