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कर्ममीमांसा
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इस प्रकार यह ज्ञात हो जाने पर कि बाह्य साधनों की उपलब्धि न तो साता और असातावेदनीय के निमित्त से होती है और न लाभान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशमसे ही होती है, तब हमें उनकी उपलब्धि के कारणों पर अवश्य ही विचार करना होगा। लोक में बाह्य साधनों की प्राप्ति के अनेक मार्ग दिखाई देते हैं। उदाहरणार्थ-उद्योग करना, व्यवसाय करना, मजदूरी करना, व्यापार के साधन जुटाना, राज्याधिकारियों की या साधन-सम्पन्न व्यक्तियों की चाटुकारी करना, उनसे मित्रता बढ़ाना, अर्जित धन की रक्षा करना, उसे व्याज पर लगाना, प्राप्त धन को विविध व्यवसायों में लगाना, खेती करना, झाँसा देकर ठगी करना, जेब काटना, चोरी करना, जुआ खेलना, भीख माँगना, धर्मादाय को संचित कर पचा जाना, आदि बाह्य साधनों की प्राप्ति के साधन हैं। इन व अन्य कारणों से बाह्य साधनों की उपलब्धि होती है; कर्मों से नहीं।
शंका-इन सब उपायों के या इनमें से किसी एक उपाय के करने पर हानि देखी जाती है सो इसका क्या कारण है?
समाधान-प्रयत्न की कमी, या बाह्य परिस्थिति या दोनों।
शंका-कदाचित व्यवसाय आदि के नहीं करने पर भी धन की प्राप्ति देखी जाती है सो इसका क्या कारण है?
समाधान-यहाँ यह देखना है कि वह प्राप्ति कैसे हुई है? क्या किसी के देने से हुई है या कहीं पड़ा हुआ मिलने से हुई है? यदि किसी के देने से हुई है तो इसमें जिसे मिला है, उसके विद्या आदि गुण कारण हैं या देनेवाली की स्वार्थसिद्धि और प्रेम आदि कारण हैं। यदि कही पड़ा हुआ होने से उसकी प्राप्ति हुई है, तो इस मार्ग से प्राप्त हुआ धन पुण्यकर्म का फल कैसे कहा जा सकता है? यह तो चोरी है। अतः चोरी का भाव ही इस प्रकार से धन की प्राप्ति में कारण है; साता का उदय नहीं।
शंका-दो आदमी एक साथ एक-सा व्यवसाय करते हैं, फिर क्या कारण है कि एक को लाभ होता है और दूसरे को हानि?
समाधान व्यापार करने में अपनी-अपनी योग्यता और उनकी अलग-अलग परिस्थिति आदि इसका कारण है; पाप-पुण्य नहीं। संयुक्त व्यापार में एक को हानि और दूसरे को लाभ हो, तो कदाचित हानि-लाभ पाप-पुण्य का फल माना भी जाय। पर ऐसा होता नहीं, अतः हानि-लाभ को पाप-पुण्य का फल मानना उचित नहीं है।
शंका-यदि बाह्य साधनों का लाभालाभ पुण्य-पाप का फल नहीं है, तो फिर एक गरीब और दूसरा श्रीमान् क्यों होता है?
समाधान-एक का श्रीमान् और दूसरे का गरीब होना यह सामाजिक व्यवस्था का फल है; पुण्य-पाप का नहीं। जिन देशों में पूँजीवादी व्यवस्था है और व्यक्ति की संग्रह करने की कोई सीमा नहीं है, वहाँ अपनी-अपनी योग्यता व साधनों के अनुसार मनुष्य उसका संचय करते हैं। गरीब-अमीर वर्ग की सृष्टि इसी व्यवस्था का फल है। गरीब और अमीर इन भेदों को पाप-पुण्य का फल मानना किसी भी अवस्था में उचित नहीं है। रूस ने बहुत कुछ हद तक इस व्यवस्था का अन्त कर दिया है, इसलिए वहाँ इस प्रकार का भेद बहुत ही कम दिखाई देता है, फिर भी पुण्य-पाप तो वहाँ भी हैं। सचमुच में पुण्य-पाप तो वह है जो इन बाह्य व्यवस्थाओं से परे है और वह आध्यात्मिक है। जैन कर्मशास्त्र ऐसे ही पुण्य का निर्देश करता है।
शंका-यदि बाह्य साधनों का लाभालाभ पुण्य-पाप का फल नहीं है, तो सिद्ध जीवों को उसकी प्राप्ति क्यों नहीं होती?
समाधान-बाह्य साधनों का सद्भाव जहाँ है और जो कषाय युक्त हैं, उन्हीं के उनकी प्राप्ति सम्भव है। साधारणतः उनकी प्राप्ति जड़ और चेतन दोनों को होती है; क्योंकि तिजोरी में भी धन रखा रहता है, इसलिए उसे भी धन की प्राप्ति कही जा सकती है। किन्तु जड़ के रागादि भाव नहीं होता और चेतन के होता है, इसलिए वह ममकार और अहंकार भाव करता है।
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