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महाबन्ध
ये दो मत हैं जिन में बाह्य सामग्री की प्राप्ति के कारणों का स्पष्ट निर्देश किया है। अधिकतर विद्वान् इन्हीं दोनों मतों का आश्रय लेते हैं। कोई वेदनीय को बाह्य सामग्री की प्राप्ति का निमित्त कहते हैं और कोई लाभान्तराय आदि के क्षय व क्षयोपशम को ।
साधारणतः यह धारणा हो जाने से कि संसारी प्राणी को जो भी संयोग-वियोग होता है, वह पुराकृत कर्म के विपाक के बिना नहीं हो सकता। विद्वान् प्रत्येक प्रश्न का उत्तर कर्मवाद से देने का प्रयत्न करते हैं। हम पहले नैयायिक सम्मत कर्मवाद का निर्देश कर आये हैं। वहाँ यह भी बतला आये हैं कि यह दर्शन कार्यमात्र के होने में कर्म को कारण मानता है। अधिकतर अन्य लेखकों ने इस मत से प्रभावित होकर ही भ्रान्ति की है।
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हम रेलगाड़ी से सफर करते हैं। हमें वहाँ अनेक प्रकार के मनुष्यों का समागम होता है। कोई हँसता हुआ मिलता है, तो कोई रोता हुआ। इनसे हमें सुख भी होता है और दुख भी तो क्या ये हमारे शुभाशुभ कर्मों के कारण रेलगाड़ी में सफर करने आये हैं? कभी नहीं। जैसे हम अपने काम से सफर कर रहे हैं, वैसे वे भी अपने-अपने काम से सफर कर रहे हैं । उनके संयोग-वियोग में न हमारा कर्म कारण है और न उनका ही कर्म कारण है।
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हमारे मकान का मुख पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं की ओर है उससे प्रतिदिन सूर्य रश्मियाँ घर को आलोकित करती रहती हैं। जाड़े के दिनों में वह प्रकाश हमें सुखद प्रतीत होता है और गरमी के दिनों में दुःखकर प्रतीत होता है, तो क्या यह प्रकाश हमारे शुभाशुभ कर्मों के कारण हमारे मकान में स्थान पाता है? कभी नहीं । मकान का मुख पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं की ओर है, इसलिए सूर्य- रश्मियों को मकान में प्रवेश करने में बाधा उपस्थित नहीं होती।
हमारी 'दुकान बम्बई में है। हमने अपनी समझ से एक अच्छे आदमी को उसका मुख्याधिकारी नियुक्त किया है। वह वहाँ का सब काम सम्हालता है। कभी दुकान में लाभ होता है और कभी हानि। तो क्या हमारे शुभाशुभ कर्मों के कारण वहाँ हानि-लाभ होता है? यदि हानि का कारण हमारा कर्म है, तो हम मुनीम को क्यों दोष देते हैं और लाभ के प्रति भी हमारा कर्म दायी है, तो हम मुनीम की पीठ क्यों ठोकते हैं? पूर्वोक्त व्यवस्था के अनुसार मुनीम तो एक प्रकार का यन्त्र है जो हमारे कर्म से प्रेरित होकर काम करता है । उसका उसमें गुण-दोष ही क्या है?
हमारी पत्नी ने मनपसन्द एक साड़ी खरीदी है। वह उसे बड़े जतन से पेटी में सम्हालकर रखती है। पेटी की बगल में एक सूराख है, जिसका उसे ज्ञान नहीं है। उसकी समझ से साड़ी सुरक्षित रखी हुई है, किन्तु प्रतिदिन एक घुहिया सूराख से भीतर जाकर उसे कुतरती रहती है। जब तक उसे हानि का ज्ञान नहीं होता वह प्रसन्न रहती है, किन्तु इसका ज्ञान होने पर वह विकलता का अनुभव करने लगती है। यदि वह हानि उसके कर्मानुसार होती है, तो जब से यह हानि होती है तभी से वह विकलता का अनुभव क्यों नहीं करती?
स्पष्ट है कि ये या इसी जाति के लोक में और जितने संयोग-वियोग हैं, उनमें कर्म का रंचमात्र भी हाथ नहीं है । सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्मों की व्याप्ति सुख और दुःख के साथ की जा सकती है, बाह्य साधनों के सद्भाव और असद्भाव के साथ नहीं। यही कारण है कि श्रावक के अल्प परिग्रही और साधु के अपरिग्रही होने पर भी वे उत्तरोत्तर पुण्यात्मा अर्थात् पुण्य कर्म के उपभोक्ता होते हैं, क्योंकि वे बहुपरिग्रही व्यक्ति की अपेक्षा उत्तरोत्तर परम सुख का अनुभव करते हैं।
इसी प्रकार जब हम लाभान्तराय आदि कर्मों के क्षय या क्षयोपशमजन्य कार्यों की मीमांसा करते हैं, तो हमें बलात् मानना पड़ता है कि इन कर्मों का क्षय व क्षयोपशम भी बाह्य सामग्री के संयोग-वियोग का कारण नहीं हो सकता। कारण कि आत्मा की जो दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य की पाँच अनुजीवी शक्तियाँ मानी गयी हैं; अन्तराय कर्म उनका ही आवरण करता है, अतएव अन्तराय कर्म के क्षय व क्षयोपशमसे ये अनुजीवी शक्तियाँ आविर्भूत होती हैं ।
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