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भूमिका. महाशयगण !
जब हम अपनी जनजाति और जैनधर्मकी पहली अवस्थाको वर्तमान काल की अवस्थासे तुलना करते है तो हृदयमें अत्यंत शोकका उदय होता है. एक यह समय था कि हर जगह जगधर्मका डंका वज रहा था. राजासे लेकर प्रजातक सब इमी मनपर चलते थे. साज वह समय है कि जैनियों की कुल संख्या केवल १३३४१४८ रहगई है. संस्कृत विद्याका तो प्रायः इस जातिसे लोपही हो चला है यही कारण है कि: आजकल अन्यमतावलम्बी इस जातिपर अनेक प्रकारके अटे कलंक लगाने लग गये, कोई कहता है त. जैनी ईश्वरको नहीं मानते, वे नास्तिक होते हैं, कोई कहता है कि ये बैद्धोंसे निकले है कोई कहता है कि ये स्नान और दन्तधावन नहीं करते सदा अपवित्र रहते हैं और कोई तो अपनी स्वाभाविक द्वेषबुद्धिके कारण जैनियोंपर अश्लील और अकथनीय कलंक लगाते भी लज्जा नहीं करते। ऐसी २ वातें जैनियोंके विषयमें मूर्ख लोग ही नहीं कहते, बल्कि पंडित लोग भी जहां जैनियोंका जिकर आता है गगे २ गोय. कहदेने में कुछ संकोच नहीं करते जिनको कहकर एक छोटासा न्यायवान पुरुप भी अपना जिव्हाको भ्रट करनेका इच्छा नहीं कर सकता। सं० १९५८ के कार्तिक मास में जो भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभाका अधिवेशन स्थान चौरासी मथुरामें हुवा उसमें वायू बनारसीदासजी एम्. ए. हेडमास्टर विक्टोरिया कालेज ग्वालियर ने ये सब बातें सभासदोंके सामने भलेप्रकार प्रगट की, जिसपर सव उपस्थित भाइयोंकी यह सम्मति हुः कि एक जैन इतिहास बनाया जाये जिसकेद्वारा लोगोंका भ्रमांधकार दर होवे। फिर जब दिसम्बर १९.०५ को मथुरामें धर्म महा महोत्सवका जलसा हुआ तो उसमें प्रायः सब मतोंके लोगान अपने २ धर्मके विषयमें व्याख्यान दिये । जैनियोंकी तरफसे भी बाबू बनारसीदासजी इस धर्म महोत्सवमें पधारे और अंग्रेजी में व्याम्यान देकर जैन, हिंदु, और बौद्ध शास्त्रोद्वारा इस वातको सिद्ध किया कि नियों के विषयों में लो. गोका ख्याल है वह बिल्कुल मिथ्या है और अंतमं नियोका मंतव्य भी दर्शाया । इस व्याख्यानको रायल एशियाटिक सोसाइटी ( Royal Asiatic Society ) और अन्य विद्वानोंने बहुत पसंत किया । अव में बाबू बनारसीदासजीको आज्ञानुसार उसका हिंदीमें उल्था करके पेश करता हूं । अंग्रेजी के व्याख्यानमें बहुत स्थानमें शास्त्रोंके हवाले नहीं दिये थे बरन् उनकी तरफ या तो केवल इशारा करदिया था या थोडासा हवाला दे दिया था अब मैने इस पुस्तकमें हरएक स्थानपर पूरा २ श्लोक अर्थसहित लिखदिया है और यह भी लिखदिया है कि वह किस पुस्तकमें किस जगहँ आया है और उचित स्थान पर मूत्रादिका भाष्य भी लिखदिया है जो प्रमाण छोटे थे और तत्काल मिल गये वे तो उसही जगह लिख दिये है और जो प्रमाण बडे और पीछेसे मिले वे व्याख्यानमें जहां तहां (१) (२) ऐसे काउंसमें नंबर डालकर व्याख्यानके अंतमें 'परिशिष्ट' के हेडिंगके नीचे नंबरवार लिखे हैं । आशा है कि न्यायवान् पुरुष इस पुस्तकको भ्यानसे पढ़ेंगे और पक्षपात छोडकर विचार करेंगे कि जैनियोंपर कितना भारी अन्याय हो रहा है और जो मिथ्या ख्यालात उनके दिलों में जैनियोंके विषयमें हैं उनको दूर करेंगे । अंतमें मैं पंडित शिवराम शास्त्रीजी
और बाबू बनारसी दासजीका हृदयतलसे कोटिशः धन्ययाद देता हूं जिन्होंने कृपा करके मुझको इस काममें सहायता दी और अपने अमूल्य समयका बहुत भाग इस पुस्तकके शोधनेमें व्यतीत किया इत्यलम् ।
देवी सहाय.