Book Title: Lecture On Jainism
Author(s): Lala Banarasidas
Publisher: Anuvrat Samiti

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Page 388
________________ (८) जनभूत वातोंको छोडकर मप्रयोजनभूत जो निकटवर्ती प्रामादिक वा भावी राजादिकोंका हाल नाम तथा नाना प्रकारके कारखानेके प्रचलित होनेको प्रगटकरते, अथवा जहाँतक प्रयोजन समझा भावो बातोंको प्रगटभी कियाहै जो सबके प्रत्यक्षहै, उनको कोई एकही काम न था किन्तु सदैव तपध्यानके विपें लीन रहतेथे एक धनवान किसी दूसरेको अपना धन न दिखानेसे वा उसके न देखनेसे निर्धन नहीं होसक्ता, इस कारण विना विचारे और विना उनके कार्योंके देखे यह कहना कि उनको ज्ञान नथा, वा कमथा, एक मूढता नहीं तो क्या होसक्तीहै।स्वामें कोई जरूरत नहीं कि दर्वाजा खोला वा बंद किया जाय,यह वहां होताहै वहां कर्मभूमि होती है वा जहां चोरचकार वा अन्य किसी प्रकारका भय होताहै,स्वामें यह बात नहीं,वहां चोरी तथा दारादिक हरण नहीं है शास्वत रचना है,कभी न्यूनाधिक नहीं हो सक्ती जो जिसके लिये नियमित है उससे हीनाधिक नहीं होसक्ता; यदि कोइ स्वयं बनाव तब उसके अच्छे बुरे वा योग्यायोग्यादि संबंधी प्रश्न उट सक्ते हैं, शाश्वत रचना विपै ऐसे प्रश्न करना वृथाहै, और शाश्वत रचनाभी जहां होती है वहांके लिय योग्यही होती है अयोग्य नहीं जब देवोंका वैक्रियक शरोर है तो कदापि छोटे मकानादिक योग्य न होने, और उनको शरीरकी उंचाईका जो कथन है सोभी आपेक्षिक है अन्यथा वैक्रियक शरीरका कोई एक परिमाण नहीं होसक्ता । हमको भ्रमहै कि हम संपादकीकी किस बातको सच समझे, जब कि वे कईवार मोक्षमार्गप्रकाश तथा रत्नकरंड श्रावकाचारादिककी प्रशंसा स्वयं करचुके है, और अब उनके अंतर्गत करणानुयोगका खंडन करते हैं । मानलो कि यद्यपि ह. मको अपनी स्थूल बुद्धिवशात् सूक्ष्म, अंतरित और दूरवर्ती पदार्थोंका पूर्णनिर्णय न होसके, तथापि हम क्यों वर्तमान भूगोलसंबंधी कथनको इतनाही मानलें जब कि कथन कर्ता स्वयं लिखते हैं कि (आर्टिकादि) सागरोंका हाल हमको मालूम नहीं और जबकि चौतरफा समुद्रोंके पारको कोई प्राप्त नहीं भया, अतः ऐसा जानकग्भी मानना केवल अज्ञानका महात्म्य है और आचार्योंके कोई क्या परदे खोलसक्ता है, उनहीकं पग्दे ग्वुले जाने है कि वे कौन हैं और उनका क्या मतहै ? चूंकि ग्रन्थ आचार्योंक बनाय हुये हैं और उनकी वे महात्मा अज्ञानी कहनुकं हैं, तथा प्रायः कोई ग्रन्थ जिनमतका ऐसा नहीं हैं जिसमें कुछ न कुछ अंश करणानुयोगका न हो सो इसके विपक्षमें वे मनघडंन खंडन करही रह हैं, अतः उनके किसी जैन ग्रन्थकी प्रमाणता नहीं, और जिसके जिनमतकं ग्रन्थको प्रमाणता न हो बल्कि उसका जो उलटा बाधकहो उसको जो कहना चाहिये सा किसीसभी गुप्त नहीं तथा उन्होंने स्वयंही पृष्ठ ८ पर “धन्यहै ईसाई मजहबको "ऐसा कहनी तथा अन्य स्थानोंपर " या खुदा नेरी कुदरत " इत्यादि आशय लिये शब्दोंका प्रयोग करनेसे अपने अंतरंग परिणामोंको प्रगट कियाहै, शास्त्रोंको छपाने बेचने केवल खरीदनकी प्रेरणाक वास्त उनकी प्रशंसा करते रहना और वैस उनके अंतर्गत लेग्वोंका खंडन करना, इससे छपान में धर्माधर्म विचारका निर्णय पाठकगण म्वयं करसक्त हैं; यदि कोई महाराजा अपने रत्नोंक भंडारको म्वयं सबको दिखाता न फिरै ? न कोई फिरा करताहै तो इससे यह नर्ताजा निकल सक्ताटै कि उसके पास रत्न नहीं हैं वा झूट हैं, इसीप्रकार यदि जैनी अपने ग्रन्थोंको न छपावें नो यह नतीजा नाहं निकलसक्ता कि उनमें झंट बातें हैं, जैनी ग्रन्थों को छिपात नहीं जो कोई गचकहा उनको दम्य सक्ताहै । हमको भयहै कि कभी थोडे कालमें ऐसी नई रोशनीवालों द्वारा यह हुकुम सादिर न किया जाय कि प्रतिमाऑका सांचेमें ढलकर गली बाजारोंमें बिकना, प्रत्येक जैनीका ग्वरीदकर अपने पास रखना और ब्राह्मणादिकी तरह गठरीमें बांध अन्यम्थानको ले जाना इत्यादिमें कोई पाप नहीं है क्यों

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