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विशेष सुभीता.
पाठक महाशय ! हाल में हमने " जैन ग्रन्थरत्नाकर ” नामका एक बृहत् मासिक पुस्तक निकालना प्रारंभ किया है, जिसमें प्रतिमास जैनमित्र सरीखे (रायल अष्ट पेजी) बडे बडे ८० पृष्ठ अथवा १६ पेजी छोटे छोटे १२० पृष्ठोंका एक अंक (खंड) छपता है. इसके १२ अंकोंका मूल्य डोकव्ययसहित ५) रु. पेशगी भेज देंगे तो यह ब्रह्मविलास || ) में ही आपके घर पहुंच जायगा. क्योंकि यह जैनग्रन्थरत्नाकरके दो अंकोंमें आया है. इसीप्रकार दश अंकोंमें दूसरे प्रथ भी बहुत सस्ते पड़ेंगे.
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा.
विद्वद्वर्य पं जयचन्द्रजीकृत मनोहर भाषाटीका और संस्कृत छायासहित.
यह ग्रंथ अतिशय प्राचीन है इसमें बालक, वृद्ध, युवा स्त्री, जैन अजैन सबके पढने सुनने मनन करनेयोग्य निम्नलिखित विषय हैं. परन्तु मुख्यतासे वैराग्यका उपदेश है. प्रथम ही मङ्गलाचरणके पश्चात् १२ भावनाके नाम कहे हैं. फिर १९ गाथामें अनित्यानुप्रेक्षा, ९ गांधामें अशरणानुप्रेक्षा, ४२ गाथामें संसारानुप्रेक्षा - जिसमें चार गतिके दुःख संसारकी विचित्रता, पंचपरावर्तनका स्वरूप है ६ गाथा में एकत्वानुप्रेक्षा, ३ गाथामें अन्वत्वानुप्रेक्षा, ५ गाथामें अशुच्यत्वानुप्रेक्षा, ७ गाथामें आस्त्रवानुप्रेक्षा, ७ गाथा में प्रेक्षा १३ गाथामें निर्जरानुप्रेक्षाक वर्णन है फिर १६८ गाथामें लोकानुप्रेक्षाका वर्णन है. जिसमें यह लोक अनन्त आकाशमें षद्रव्योंका समूह है. पुरुषाकार चौदह राजू ऊंचा घनरूप क्षेत्रफल करनेसे ३४३ राजूका है. जिसमें जीव अजीव द्रव्य भरे हैं. सो प्रथम ही जीवद्रव्यके वर्णनमें अव्याणवें जीवसमास, पर्याप्त, जीवोंका स्थान, संख्या, अल्पबहुत्व, आयुकायका वर्णन करके अन्य वादियोंके मानेहुये जीवके स्वरूपका खण्डन, अन्तरात्मा, बहिरात्मा, परमात्माका स्वरूप आदिका वर्णन किया है. तत्पश्चात् अजीवका वर्णन है. जिसमें पुद्रलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य और कालद्रव्यका वर्णन किया है, द्रव्योंके परस्पर कार्यकारणभाव, अनेकान्तविना कार्यकारण बनते नहीं, कार्यकारण विना द्रव्य काहेका, फिर द्रव्यपर्यायका स्वरूप कहकर समस्त पदार्थोंको जाननेवाले प्रत्यक्ष परोक्षरूप ज्ञानका वर्णन किया है. फिर अनेकांतवस्तुका साधनेवाला श्रुतज्ञान है. श्रुतज्ञानके भेद नय हैं. नय हैं सो वस्तुको अनेक धर्मरूप साधर्ती हैं. इसकारण नयोंका स्वरूप कहा है. प्रमाण और नयसे वस्तुको साथ मोक्षमार्गका साधन करनेवाले विरले हैं. विषयोंके वशीभूत होनेवाले बहुत हैं इत्यादि कहकर लोकभावनाका कथन पूरा किया है. तत्पश्चात् बोधिदुर्लभभा वनाका वर्णन १८ गाथावों में किया है जिसमें निगोदसे निकलकर अनेक पर्यायोंका पावना तो कदाचित् सुलभ है परन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्गका पाना अतिशय दुर्लभ है इत्यादि वर्णन करके फिर धर्मानुप्रेक्षाका वर्णन १३६ गाथावों में किया है, तिनमेंसे ९० गाथावों में तो श्रावकाचारका (गृहस्थाचारका ) वर्णन है. तिनमेंसे २६ गाथामें अविरत सम्यग्दृष्टिका वर्णन, २ गाथामें दर्शनप्रतिमा, ४१ गाथामें पंचाणुव्रत, तीनगुणवत, ४ शिक्षाव्रत इसप्रकार १२ व्रतोंका वर्णन है. फिर २० गाथावों में श्रावककी ११ प्रतिमावका ( ११ दरजोंका ) स्वरूप है. तत्पश्चात् ४६ गाथावोंमें मुनिधर्मका ( यतिधर्मका ) वर्णन है. जिसमें रत्नत्रय युक्त मुनि होकर उत्तम क्षमादि दश धर्म पालै तिनका जुदा २ वर्णन है. फिर अहिंसा धर्मकी प्रशंसा करके धर्मसेवना सो पुण्यफलके अर्थ न सेवना किंतु मोक्षके अर्थ सेवना, शंकादि आठ दूषण धर्म में नहिं रखना, आठ अंगसहित धर्म सेवना- इत्यादि जुदा २ वर्णन है. फिर धर्मके फलका माहात्म्य वर्णन करके धर्मानुप्रेक्षा पूर्ण किया है. तत्पश्चात् धर्मानुप्रेक्षाकी चूलिकारूप १२ तपका वर्णन ५१ गाथामें जुदा किया है. इसप्रकार ४९० गाथामें यह ग्रन्थ पूर्ण हुवा है. इस प्रन्थकी मूल गाथा अतिशय प्रिय और सरल है. तिसपर भी गावाके नीचे संस्कृतमें पदपदका अनुवाद ( छाया ) है, फिर बचनिका (भाषाटीका) है. निर्णयसागर की टाईप और छपाई तो जगत्प्रसिद्ध है. मूल्य रेशमी कपड़ेकी जिल्दका १॥ ) रु. कागजकी जिल्दका रु. १1) डोकव्यय जुदा पड़ेगा. ये ग्रन्थ बहुतसे छपनेसे पहिले ही विक गये हैं हमारे पास थोडीसी प्रति रहेंगी जिनको चाहिये मँगालेवें. बिलम्ब करेंगे वे पछतायेंगे. पत्ता- पन्नालाल जैन, मैनेजर जैन रत्नाकर कार्यालय पो. गिरगांव, मुंबई.