Book Title: Lecture On Jainism
Author(s): Lala Banarasidas
Publisher: Anuvrat Samiti

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Page 385
________________ और स्व परदाराका भेदरहित मनुष्यों के विपै मैथुन कर्म अविवेकजनित है और स्वपरदारा भेद विचारपूर्वक निज स्त्रीमात्रसे योग्यकाल, योग्यवय ( अवस्था ) और योग्य क्षेत्र विषै मैथुनकरना सो विवेकजनित है । अतः विधवा विवाहका करना एक अविवेकजनित प्रवृत्ति है, और कदापि विवेकजनित नहीं होसक्ती है; देखो जो विवेकवंती स्त्रियां हैं वे पुनर्विवाह तो दूरही रहो स्वयं अपना विवाह करनेकोभी एक अविवेकजनित प्रवृत्ति समझती हैं, जिनकी सेंकडों कथा भाइयोंने शास्त्रोंसे मुनीहोंगी । आदिनाथ स्वामीकी ब्राह्मी और मुंदरी दोनों पुत्रियोंने स्वयं विवाहकरनेका अनुचित समझ नहिं किया किन्तु जिनेन्द्री दीक्षा धारणकी श्रीपालकी स्त्री मैनासंदरोने जो उत्तर अपने पिताको इस प्रश्नका दिया था कि “ तुम किसके साथ अपना विवाह चाहती हो “वह किसोसेभी गुप्त न होगा, होतो श्रीपाल चरित्र देखलेवें । यदि यह कार्य विवेकननित होता नो कदापि श्रीराजमती (राजुल) जिसका कि-पाणिग्रहणभी नहीं हुआथा, नेमनाथके विरक्त होने और विवाह न करनेपर दीक्षा धारण न करती, और " मनभरियो मांग हमारी, मेरे शीलको लागै गारी" इत्यादि आशय लिये हुए शब्द न कहती, जिनकी संपादकजीनभी बारहमासे आदिमें स्वीकार कियाहै, इसीप्रकार सेंकडों दृष्टान्तमौजूद हैं जिनमें विवेकियोंने विवाह क्या ? वाग्दान ( सगाई )के पश्चात्भी मन्यसे विवाह करनेको व्यभिचार और अविवेकजनित कार्य समझा, देग्यो पाण्डवोंके लाखामहलमें जलनेको खबर मुनकर उन कन्याओंने जिनके पिताओंने उनसही यह कहाथा कि-हम तुह्मारा विवाह पांडवोंसे करेंगे, अन्यसे विवाह करना पिताके कहनेपरभी नहीं चाहा, और दीक्षा धारणपर तत्पर होगई, और स्त्रियांही नहीं किन्तु पुरुपभी ऐसे व्यभिचारी परिणामोंके नथे जो विधवा विवाहको चाहते, किंतु उसकी विरुद्दतामें हहको पहुंचगये थे, जिसका दृष्टांत भाइयोंको हनुमानके पिता पवनंजयकी कथास ज्ञात हुआ होगा. जिन्होंने अपनी स्त्री अंजनाको विवाह होतेही २२ वर्पनक इस बातपर त्यागे रक्खी कि जब विवाह के निकट दिनोंमें उसकी सखी मिश्रकेशीने पवनंजयकी अपेक्षा दूसरे राजाकी प्रशंसाकी तो अंजनाने पूर्ववत् ( जैसा कि दूसरीसवीद्वारा पवनंजयकी प्रशंसापर किया था ) लज्जाकर नीचा मुख करलिया और कुछ उत्तर नहिं दिया, जिसका आशय पवनजय हाग यह निकाला गया कि इसकशीलम अंतरहै जो हमागै बुराई कानों सुनी और चुप रही । शोक कि इननेपर भी नहीं मालूम संपादक पत्रिकाको क्या खप्त सुझा और बाबलगत उठी जो नसमें यह लिखगये कि पहिले यहांभी विधवा विवाह होनाथा, जबसे जैनियों का राज्य गया और हिन्दुओंका हुआ तबसे जाता रहा। अरे शिथलाचार पोपकों वृथा क्यों जिन धर्म और जातिकोभी कलंक लगाते और भविद्यमान दूपण लगाकर नीच गतिका कर्म बांधते हो, ऐसे पुरुषोंके होनेसे तो यह जाति शन्यही भली है क्योंकि नीतिमेंभी ऐसा आशय प्रगटहै कि “ वरं शन्याशाला नच खलवरो दृष्ट वृषभः, वरं वेश्यापत्नी नपुनरविनीता कुलवधू । वरं वासोरण्ये न पुनरविवेकाधिप पुरे, वरं प्राणत्यागो न पुनरधमानामुपगमः ॥"ऐसे मिथ्याभाषगको पढकर कोंन जैनी है कि जिसपर इन मृषानंदियोंका आशय प्रगट न हो जावै, अवश्यही, और निश्चय है कि उनके उन्मत्तवत् सत्यपरभी अहान न रहै । नहीं मालूम इनका विवेक कहाँ गया जो " लाल वस्त्रादि" अनेक मनोकल्पित युक्तियोंसे व्यभिचारको पोषते हैं, शायदहै कि इन्होंने पूर्वोक्त शियलाचारी मुनियोंका अनुकरण ग्रहण किया हो क्योंकि उन्होंनेभी मांसादिक अभक्ष्यको रोगादिक विणे भक्ष्य स्थापन करनेके लिये वर्द्धमानस्वामी श्रादिपर दोपारोपणकर युक्ति कीथी। परन्तु हमको भयहै कि कभी विधवाभिलाषियोंको किसी सुशिक्षित और सुशीला विधवा


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