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पृष्ठ पर जो संपादक उल्लू, बेसमझ, मूर्ख, बेइल्म गधे और बिल्ली इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया है सो जो मुन्सिफ उनके लेखको पढैगा तथा जैनमित्रका अंक ४ देखेगा तो वह अवश्य डिगरीतौहीन (डैपैमेशन) कीवहक ( हकमें ) जैनमित्र के सादिर करेगा । उनके इस लेख से ज्ञात होता है कि उन्होंने जैनमित्रके मजमूनहीको नहीं समझा, उनका कथन शिक्षाप्रणाली (तरीक तालीम ) के ऊपर था नाके शिक्षाके; जिसको आप शिक्षाहोंमें ले बडे सचतो यों है कि किसी बात के समझने और खंडन करने की शक्तितो है नहीं, वृथाही कोलाहल मचाकर अमन ( जातिके आराम, सुख ) में विघ्नडालते हैं, और आप स्वयं हीन शक्तिवशात् अनभिज्ञ हो जीवादिक तत्वोंके ज्ञाता पंडितजनोंसे हसद और ईर्षाकर उनकी निंदा और अपनी प्रशंसा करते हैं सोटीकही है जब बहुतसे मुनि शिथिलाचारी होगये और लोग उन्हे शिथिलाचारी कहने लगेथे तब उन्होंने शिथिलाचार पोषक सूत्र रचेथे और उनकी सम्प्रदाय बढकर मत होगये और अबतक प्रचलित हैं, इसी प्रकार अब सज्जनोंसे लोग द्वेष बढातेहैं और हीनाचारका उपदेश फैलाते हैं, नहीं मालूम उनका अतरंग आशय क्या है ?
पृष्ठ ५ पर संपादकजीने लिखते समय कुछभी विचार न किया कि हम क्या लिख रहे हैं, और करतेही क्यों स्वयं सर्वज्ञ नहीं सर्वज्ञके ज्ञानकर अनुवासित नहीं; आप लिखते हैं " यानि दुलहनकी बाँह बरके हाथमें पकड़ा देतेथे इसका नाम विवाह था " इसपर पाठक विचार करते हैं कि यदि केवल बाँह पकड़नाही विवाह हो और अन्य कोई विधि उसके साथमें न हो और न कुछ उच्चारण किया जाय तो पैदा होने के समय से हजारों मनुष्य कन्याकी बाँह पकड़ते हैं और पकडाई जाती हैं और पूजा के समयों में भी. सो सर्वही विवाह हो जाते? परन्तु यह नहीं हैं, इससे इतनाही कहना विवाह के आशयको प्रगट नहीं करता किन्तु अन्य मंत्रादिक सहित विधानभी होता है, स्वयंवर में जो केबल इतनाही नहीं होताथा कि स्वयं वर नलिया और साथ चलदी, किन्तु चुननेके पश्चात् पुनः विधिपूर्वक विवाह होता था, और यह वाक्य तो शायद सम्पादकजी भुलकर अपने प्रतिकूल लिखगये कि “जैनि
में उनका यावज्जीवके लिये संबंध रखने के वास्ते पंच परमेष्टीकी साखी कराई जाती थी क्योंकि " यावज्जीव" का शब्द उस कालतकका बाचक है जबतक कि दोनोंकी आयु समाप्त न होजावै, यदि पुरुषके मरनेपर स्त्री अन्यविवाह करे तो सम्बन्ध उनका यावज्जीव न रहा, वह दूसरे मनुष्यकी स्त्री कहलावेगी, यदि वह न करे तो वह उसकी स्त्री कहmrit और उसकी जायदाद ( प्रॉपर्टी ) की भोक्ता होगी, और एक सामान्य मनुष्यको भी साखी देने से भले आदमी उसका प्रतिपालन करते हैं, फिर पंच परमेष्ठीको साखीदे और अनेक मंत्रका विधानकर कौन सुबुद्धि है जो उसके निर्वाहमें त्रुटि करे और मन्त्रोंका प्रभाव न समझे, यद्यपि अग्निको जैनी देवता नहीं मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं परन्तु आपको स्मरण होगा कि जब तीर्थंकरादिकका निर्वाण कल्याणक होता है उससमय इन्द्रादिक उनके शरीरको दग्धकर अभिकी पूजा तथा प्रदक्षिणा देते हैं. और भस्मको मस्तक पर चढाते हैं, बस उसी अग्निकी यह स्थापना है, विधिपूर्वक मंत्रादिकसे हवनादि कर वहअनि पूज्य होजाती है जैसे प्रतिमाजी, सोई जिनसेनाचार्यने आदिपुराण में वर्णन किया है और उस अग्निको तीन प्रकारसे कुण्डों में प्रगटकी है और पूजन भगवानका पाणिग्रहण के बादही नहीं किन्तु मंगलके अर्थ पहिलेभी होताया और होता है । यद्यपि कन्यादान उन दानों से नहीं हैं जो कि जिनमतमें माने हैं और न इसके करनेसे पुण्य होता है किन्तु पाप जरूर होता है परन्तु व्यवहारमें देनेकी क्रियाकर इसको रूढ़ित कर लिया है और जिसप्रकार