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जैनधर्मपर व्याख्यान. एक भारतक बोलनेकी परवाह नहीं करते। हिन्दू जैन और बौद्धोंमें जो परस्पर शत्रता है उसका भी बहुत कुछ दोष है परन्तु मुझको इस स्थानपर यह छोड देना उचित है बल्कि मुझको प्रसन्म होना चाहिये कि अंग्रेजोंके दयामय राज्यमें हम सब हिन्दू, जैन
और बौद्धोंको इस महा मंडलमें एक सायबानके नीचे एकत्र होनका अवसर मिला है जिससे हम अपने २ धर्मकी रक्षा करसकते हैं, और यह बात ठीक २ समझा सक्ते हैं कि यह धर्म क्या है। निस्सन्देह मैं इसस्थानको पवित्र और इस समयको भाग्यवान समझता हूं जो हमको यहां इस समय अपने २ धर्मके विषयमें कहने और सुननेका अवसर प्राप्त हुवा है.
महाशयो ! मैं पहले कह चुका हूं कि लोगोंको हमारे धर्मकें विषयमे बड़ा मिथ्या बोष हुमा और इसपर बहुतसे न्याय विरुद्ध कलंक और दूषण लगाये गये हैं। अब मैं उनमेंसे कुछ विपरीत ज्ञानको दूर करने और कलंकोंके धोनेका संक्षेपसे यल करूंगा। पहिलेसे जैनियोंकी प्राचीनताकी ओर ध्यान दीजिये । जैन धर्म शंकराचार्यके पीछे
प्रचलित नहीं हुआ, लेब्रिज ( Lethbridge) और मॉटस्टा जैनियोंकी प्राची नता, जैनमत शंक- ट एल फिस्टोन ( Mount stuart Elplimatone) जैसे अंग्रेज राचार्यके पीछे नहीं लेखकोंकी बड़ी भूल है जो कहते हैं कि बौद्ध मतको अवनति
होनेपर जैनमत ६०० ई० में निकला और १२०० ई० में नाशको प्राप्त होगया. यद्यपि अब भी कुछ जैन पाये जाते हैं । ऐसा कह. नेसे वह केवल जैन शास्त्रोंहीसे अपनी अज्ञानता प्रगट नहीं करते वल्कि हिन्दू और बौद्धोंके पवित्र ग्रंथोंसे भी । इन विहानोंको मालूम होना चाहिये था कि शंकराचायेने स्वयं उज्जैनसे वाल्हीक देशमें जाकर जैनियों के साथ शास्त्रार्थ कियाथा (३) जैसा कि माधव और आनन्दगिरिने अपनी शंकरदिग्विजय नामक पुस्तकों और सदानंदनें अपने शंकरविजयसार नामक ग्रंथमें लिखा है. सिर्फ इतनाही नहीं बल्कि शंकरने स्वयं लिखा है कि जैनमत बहुत पूर्वकालमें विद्यमान था क्योंकि व्यासकृत वेदांतसूअपर अपने भाष्यमें शंकरने लिखा है कि दूसरे अध्यायमें जो दूसरा पाद है 5. सके सूत्र ३३ से ३६ वक जैनमतसे सम्बध रखते हैं, रामानुजने भी जो व्यास ऋषिके शारीरक मीमांसा नामक ग्रंथके भाष्यकार हैं, अपने श्रीभाष्यमें यही राय लिखी हैं ।
1-हिन्दुस्तानका इतिहास (Histowg of India ) p. 27 २-हिंदुस्तानका इतिहास ( History of India. ) p. 122
चला।