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प्रस्तुत विषय की उत्पत्ति और उसका ऐतिहासिक महत्व ।
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क्योंकि । स्वदेशी-वस्तु' का आन्दोलन', इस देश में, पहले भी, कई बार, हो चुका था, और उसका परिणाम बहुत संतोषदायक नहीं हुआ। परंतु जो लोग अपने देश की वर्तमान-दशा और कुछ वर्ष पहिले की दशा पर ध्यान देते हुए उक्त प्रतिज्ञा का सूक्ष्म रीति से विचार करेंगे उन्हें अवश्य विश्वास हो जायगा, कि प्रस्तुत कार्य में एक अति महत्व का राजनैतिक तथा ऐतिहासिक तत्व गुप्त रीति से छिपा हुआ है। यदि इस दृष्टि से देखा जाय तो यही कहना पड़ेगा, कि भारतवर्ष के वर्तमान-इतिहास में, यह आन्दोलन एक अनुपम घटना है. यह हम लोगों की राजनैतिक उन्नति का एक स्पष्ट चिन्ह है। इस कार्य की सिद्धता पर ही---उक्त प्रतिज्ञा का पालन होने पर हीदुनिया के सभ्य तथा उन्नत देशों की पंक्ति में गिने जाने की, हमारे देश की, योग्यता अवलांबित है। सारांश, यह कार्य हमारे स्वावलंबन और कर्तृत्वशक्ति का द्योतक है । इस विषय का बोध होने के लिये कुछ पूर्वावस्था की आलोचना करनी चाहिए। इससे वर्तमान प्रसंग का महत्व और उसकी गंभीरता पूर्ण रीति से समझ में आ जायगी ।
यह प्रसंग बड़ेही मारके का है।
यह एक अत्यन्त महत्व का प्रश्न है. कि विदेशी-राजसत्ता के आधीन
रहनेवाले लोगों को, अपने प्राचीन स्वत्वों [हक़] की रक्षा करने और नये स्वत्व प्राम करने के हेतु, किन उपायों की योजना करनी चाहिए ? जब किसी एक देश में विदेशियों की राजसत्ता स्थापित हो जाती है तब उस देश के लोगों के बहुतेरे प्राचीन हक छीन लिये जाते हैं-उनकी स्वाधीनता का हरण कर लिया जाता है; और उन लोगों को किसी प्रकार के नये स्वत्व सहज ही नहीं दिये जाते । पाठको, क्या आपको मालूम नहीं कि ठीक यही दशा, कुछ दिनों मे, इस देश की--इस पवित्र और प्राचीन भरत-भूमि की-हो रही है ?
" तीस वर्ष पहले, महाराष्ट्र देश में, स्वर्गवासी गणेश वासुदेव जोशी ने 'स्वदेशी वस्तु के व्यवहार' का आन्दोलन किया था।