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स्वदेशी आन्दोलन और बायकाटे ।
त्याग की प्रतिज्ञा से इस देश के अंगरेज अधिकारी नाराज होंगेहमारी दयालु सरकार अप्रसन्न होगी और मंचेष्टर के व्यापारी हमारे देशी माल पर कर लगवाकर इस देश के नये कारखानों को गिरादेने का प्रयत्न करेंगे; अतएव यह कार्य हम लोगों की शक्ति के बाहर है। अब हम यह जानना चाहते हैं कि हमारे देशभाई, विदेशी वस्तु के त्याग की प्रतिज्ञा करकेबहिष्कार-योग का अभ्यास करके अपने देश के नष्ट हुए व्यापार की उन्नति करना, अपने देश को दरिद्रता से मुक्त करना और अपने देश के स्वाधीनगौरव को स्थापित करना अच्छा समझते हैं; या इस देश के अगरेजअफसरों की नाराजी, सरकार की अप्रसन्नता और मंचेस्टर के व्यापारियों की बंदर- घुड़की से भयभीत होकर देशद्रोही बनना पसंद करते हैं ? क्या यह वेद और लज्जा की बात नहीं है कि ये लोग सरकार की अप्रसन्नता और अफसरों की नाराजी की तो इतनी परवा करें; परन्तु अपने देश की भलाई का कुछ भी विचार मन में न लावें? जो लोग स्वयं अपनी अपने कुटुम्ब की, अपने पड़ोसी की, अपने समाज की और अपने देश की भलाई की कुछ भी चिन्ता न करके केवल विदेशियों को खुश करने का प्रयत्न करते हैं, वे देश के हितकर्ता नहीं कहे जा सकते । अंगरेजी भाषा में एक कहावत
है जिसका अर्थ यह है कि "पहले तुम अपनी भलाई करो; फिर दूसरों
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की भलाई की चिन्ता करो । हमारा यह आशय नहीं है कि जानबूझकर, किसी कारण बिना, इस देश के अंगरेज अफसरों को या सरकार को या विलायत के लोगों को अप्रसन्न करने का प्रयत्न किया जाय । नहीं; हमारा
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प्रयत्न केवल अपनी जातीयता - अपने राष्ट्रीयत्व -- के अस्तित्व के लिये होना चाहिए । यदि अपनी जातीयता के अस्तित्व के प्रयत्न से - अपने राष्ट्र को सजीव रखने का उद्योग करने से किसीका मन दुःखित हो -- किसी की अप्रसन्नता हो-- कोई नाराज हो-तो हमें उसकी परवा न करनी चाहिए । अपने पवित्र कर्तव्य के पालन से यदि किसीको बुरा लगे तो उसकी ओर ध्यान न देना चाहिए। किसी व्यक्ति वा समाज वा राष्ट्र का मन दुःखित न हो, इस हेतु की सिद्धि के लिये, क्या हम लोगों को अपने तीस करोड़ देशभाइयों के अस्तित्व का नाश कर डालना चाहिए? क्या उन लोगों को भूख से पीड़ित