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नैनधर्मपर व्याख्यान.. परन्तु एकदृष्टि से मात्र जैन नास्तिक कहे एकामध्यानके योगसे उन्नतिका मार्ग शोध
____नाते हैं और ब्राह्मणधर्मी ग्रन्थकार निकाला व सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्दो नास्तिक किंवा पाश्चिमात्य लेखक जब २ चरित्रके योगसे कर्मबंधका नाशकर परमेश्वरसे धर्म,
• बौद्धों व जैनियोंको नास्तिक कहते तादात्म्यकर लिया, उनके ध्यानकी मुद्रा हमें हैं तब २ वे इसी दृष्टि से देखते होंगे ऐसा जान दर्शनोंको मिले व उन सरीखे पवित्र आचरण पड़ता है, वह दृष्टि " ईश्वरपर सृष्टिका कर्तव्य रखनेकी प्रेरणा हमको होवे एतदर्थ ऐसे महात्माहै कि नहीं, यह है, बौद्धोंकी मुआफिक जैन ओंकी अर्थात् तीर्थकरोंकी मूर्ति स्थापन करनेकी भी ईश्वरमें सृष्टिका कर्तव्य है. ऐसा नहीं ! चाल पड़ी है, सम्पूर्ण जैनमन्दिरोंकी मूर्तियां माननेवाले हैं. पृथ्वीकी पीठपर आज जो प्रसिद्ध ध्यानमग्न होती हैं, खड्गासन मूर्ति दोनों हाथ २ धर्म हैं उनमें ईश्वरको स्टष्टिका कर्ता न लम्बे छटे हुए व नेत्र अर्धबन्द नासाग्रमें दृष्टी माननेवाले ये ही दो धर्म हैं, अत एव इन्हें ठहराये होती हैं और पद्मासन मूर्ति बैठे आसनसब लोग नास्तिक कहते हैं तो ठीक ही है, युक्त पांवमें पांव उलझाये, दोनों हाथोंके पंजे परंतु सृष्टिका कर्ता ईश्वर है कि, नहीं यह ! पांवोंके मध्यभागमें जोडे रक्खे व नेत्र अर्धबन्द विषय प्रथमसे ही वादग्रस्त है, शास्त्रज्ञोंका : नासाग्रमें दृष्टि लगाये. ऐसी होती हैं, जो मूर्तिइस विषयमें आजतक एक मत नहीं हुआ, यां नग्न रहती हैं वे जैनियोंके दिगम्बरीय सउसके होने तक तो निदान नास्तिक शब्दसे जै- प्रदायकी होती हैं, श्वेताम्बरीयपंथकी मूर्तियां नधर्मका वैगुण्य ( विगाड़ ) स्थापित होता है कोपीन युक्त होती हैं, परन्तु यह कोपीन कऐसा कह नहीं सक्ते. '
पड़ेकी बनाकर पहिनायी हुई नहीं होती है। यदि ईश्वर पूजन अर्चन आदिसे प्रसन्न जिस धातु किंवा पाषाणकी मूर्ति हो, उसीकी
न होकर हमारी मनोकामना अंगपर घढ़ी ( कोरी ) हुई होती है। जैनीजैनी किसकी पूजा
पूजा पूर्ण नहीं करता, हमारे लोग इन मूर्तियोंका पूजन हमेशह सवेरे करते कर्मानुसार हमें फल मिलता
ता हैं, पूजन और भोजन ये दो बातें रात्रिको कहै तो फिर ईश्वरकी पूजा किस लिये करना ?
किस लिय करना रना अत्यन्त वर्ण्य हैं, दिगम्बरीय जैन उनके और फिर जैनी लक्षावधि रुपये खर्च करके कपडे पहिनकर किसीको भी मन्दिरमें जाने भव्य मन्दिर क्यों बनवाते हैं व मूर्तिकी पूजा क्यों नहीं देते. इसी प्रकार बँवर भी मन्दिरमें नहीं करते हैं। ऐसा प्रश्न साहजिक विचारनेमें उ-आने देते. मूर्तिका पूजन श्रावक अर्थात् गृहत्पन्न होता है, इसका उत्तर इतना ही है कि,
स्थाश्रमी करते हैं. मुनि नहीं करते. वे केवल मैन मान्दरोंमें जो मूर्तियां रहती हैं वे परमे-दर्शन और नमस्कार मात्र करते हैं, श्रावकोंकी श्वरको प्रसन्न करलेनेकेलिये नहीं रहतीं. वे पजनविधि प्रायः हम ही लोगोंसरीखी है. अन्तर मूर्तियां देवादिकोंकी नहीं तीर्थकरोंकी रहती -
। (१) अर्थात् आत्मस्वरूपको प्राप्त होकर मोक्षको : हैं. जिन महात्माओंने परम वैराग्य धारण करके प्राप्तहो गये ऐसा समझना चाहिये.
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