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स्वदेशी-भान्दोलन और बायकाट ।
व्यापार को उत्तेजित करने के हेतु, विदेशी-वस्तुओं पर कर लगाया जाता है । यह काम प्रत्येक देश की सरकार ( गवर्नमेन्ट ) का है। परंतु यह देश अंगरेज-सरकार के अधीन है; इस लिये वह हम लोगों के व्यापार की रक्षा और उन्नति के लिये विदेशी-वस्तुओं पर कर लगाना नहीं चाहती। ऐसा अवस्था में, जो कार्य सरकारी कर लगाने से सिद्ध होता वही, सर्व साधारण लोगों के स्वदेशी वस्तु-व्यवहार की प्रतिज्ञा से, सिद्ध हो रहा है । जब लोग अपने देश के व्यापार की रक्षा और उन्नति के लिये स्वदेशी वस्तु के व्यवहार की प्रतिज्ञा कर लेते हैं, तब यही समझना चाहिए कि वे लोग, विदेशी वस्तुओं पर सरकारी कर लगाने से जो फल होता उसका स्वीकार करने के लिये, खुशी से तैयार हैं। जत्र विदेशी वस्तुओं पर सरकार की
ओर से कर लगाया जाता है, तब वे महँगी हो जाती हैं और उनके खरीदारों को एक प्रकार का टैक्स (कर) देना पड़ता है; और जब लोग अपनी खुशी से स्वदेशी वस्तु के व्यवहार की प्रतिज्ञा करते हैं, तब भी देशी वस्तु महंगी हो जाती है और उसके खरीदारों को एक प्रकार का टैक्स ( कर ) देना ही पड़ता है। इससे देश की हानि किस तरह होती है यह बात हमारी समझ में नहीं पाती । यह तो अर्थशास्त्र का सिद्धान्त ही है कि जब किसी देश के व्यापार की रक्षा और उन्नति करना हो, तब विदेशी वस्तु पर-अर्थात् उसके खरीदारों पर-उस देश के लोगों पर-कर लगाना पड़ता है। यदि हमारे स्वदेशी आन्दोलन से स्वदेशी-वस्तु महंगी हो गई है, तो उसका अर्थ यही समझना चाहिए कि हम लोगों को, अपने देश के व्यापार की रक्षा
और उन्नति के लिये, अपनी खुशी से, कर देना पड़ता है। इससे देश की कुछ हानि हो नहीं सकती। ऐसा मान लीजिये कि जो विदेशी वस्तु १) रु० को मिलती है, वही स्वदेशी वस्तु हम लोगों को, अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, ११) २० में लेनी पड़ती है-अर्थात् हम लोगों को चार पाने अधिक देने पड़ते हैं । इस हिसाब से यदि पांच करोड़ का स्वदेशी माल खरीदा जाय तो प्राहकों को एक करोड़ रुपये अधिक देने पड़ेंगे । इसी लिये कोई कोई कहते हैं कि स्वदेशी आन्दोलन से लोगों की हानि होती है । परंतु वे लोग इस बात पर ध्यान नहीं देते कि पांच करोड़ का स्वदेशी माल न लेते हुए यदि चार करोड़