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जैनधर्म पर व्याख्यान.
मुनि
पवित्र आचरण. ये आचरण श्रावक और मुनि इन दोनोंके लिये पृथक् २ कहे धापक और गये हैं. श्रावक अर्थात् गृहस्थाश्रमी इस श्रावक शब्दसे वर्तमानमें ‘सरावगी’ ऐसा अपभ्रंश हो गया है. हालमें सराफी और व्यापार करनेवाले जैन अधिकतर सरावंगी ही हैं. जैनियोंका दूसरा धर्म ओसवाल है. ये लोग बहुधा धान्यकौ व्यापार करनेवाले हैं. अस्तु. श्रावकोंके दो वर्ग हैं. एक ती अर्थात् कितनेयक नियमित व्रतोंको भलीभांति कठिनाई झेलकर पालनेवाले और दूसरे अवती अर्थात् वे व्रत उतनी कठिनता से न पालनेवाले व्रती श्रावकके क्रमानुसार ११ सीढ़िया हैं. उन्हें प्रतिमा कहते हैं. प्रथमसे लेकर छठवीं सीढ़ीतक जो पहुंचे वे जघन्यश्राचक. छठवींसे नवमी पर्यन्त मध्यम श्रावक और आगे उत्कृष्ट श्रावक होते हैं.
और तीसरा साधन सम्यक् चारित्र अर्थात् निर्दोष, | यम अलग २ हैं. इसका अर्थ इतना ही लेना चाहिये कि, मुनियोंको वे नियम कड़ाईके साथ पालना; व श्रावकोंको कोई मर्यादा पर्यन्त पालना. उदाहरणार्थ, ब्रह्मचर्य यह मुनिको सम्पूर्ण रीतिसे पालना चाहिये. और श्रावक अर्थात् गृहस्थी मनुष्योंको कुछ विवक्षित मर्यादातक पालना चाहिये. इसीप्रकार अहिंसा, सुनृत अर्थात् सत्य भाषण, अचौर्य अर्थात् चोरीका निषेध, अपरिग्रह अर्थात् लोभका अभाव, इनके सम्बन्धमें समझना यतिको मात्र सर्व सङ्गसे अलिप्त ही रहना चाहिये.
जैनधर्म में अहिंसा तत्त्व अत्यन्त श्रेष्ठ माना अहिंसा
तत्व.
गया है. बौद्धधर्म व अपने ब्राह्मणधर्ममें भी यह तत्त्व है. तथापि जैनियोंने इसे जिस सीमातक पहुंचा दिया है वहांतक अद्यापि कोई भी नहीं गया है. कभी २ तो ये लोग क्षुद्र जीवनंतु
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श्रावक और मुनि किंवा यति सम्बन्धी नि
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( १ ) 'सरावगी कोई जाति नहीं है. धावकका अप
स शब्द है. जैन जाति ८४ प्रकारकी हैं. जैसे खण्डेलवाल, बघेरवाल, जैसवाल, पोरवाल, पद्मावती पोरवार, परवार, पल्लीवार, अग्रवाल इत्यादि. मारवाड़ में प्राय: खण्डेलवालोंको कोई २ 'सरावगी' कहते हैं.
( २ ) यहां धर्म नहिं कहकर 'जाति' ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि ‘ओसवाल’ ८४ जातियों में से एक जाति हैं. इनका धर्म प्रायः स्वेताम्बरी साधुवोंका चलाया हुवा है. इस कारण इनको स्वेताम्बरीय कहते हैं.
( ३ ) जैनियोंकी सब जाति ही प्रायः सर्व प्रकारके उत्तम व्यापार करती हैं. हां जिस रोजगारमें जीवोंकी हिंसा और कोई महा आरंभ हो तो ऐसा रोजगार जैन कम करती हैं.
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की इतनी रक्षा करते हैं कि, उनका वर्तन उपहासपात्र हो जाता है. किन्हीं २ प्रसंगोंपर मनुष्योंको अनर्थकारकतक हो जाता है. मनुप्याँके प्राणघातक सर्पादि प्राणी हाथमें पड़ जावें
(१) गृहस्थ के लिये ( श्रावक के लिये ) अपरिग्रह व्रत नहिं होता किंतु इसकी जगह परिग्रहपरिमाण व्रत रहता है. अर्थात् धनधान्यादि दश प्रकारकी परिग्रहका आवश्यकतानुसार परिमाण कर लिया जाता है. कालान्तरमें उससे अधिक की आवश्यकता पड़े तो ग्रहण नहिं कर सक्ता.
( २ ) क्षुद्र जीव, चिवटी, कीट, मच्छर, खटमल, पीसू वगैरह होते हैं. उनकी अधिक रक्षा करना 'उपहासास्पद है' ऐसा कहना उचित नहीं है. कारण कैसे ही क्षुद्र जीव क्यों न हो अपने सुखकेलिये उनको मारना वा पीड़ा देना सर्वथा अनुचित है. उनका वध नहिं