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ये हमारे गुरू है ?
धार्मिक, सामाजिक, व्यावहारिक, नैतिक आदि काम करे, तो क्या यह ' डिसिप्लिन' का भङ्ग कहाँ जायगा ? नहीं । अत्र प्रश्न यह है कि, यदि विद्यार्थी अपने देश की उन्नति के किसी कार्य में शामिल हों तो आप उपे ' डिसिप्लिन' के विरुद्ध कैसे कह सकते हैं ? सारांश, जो गुरू स्वयं कुछ देशहित करना नहीं चाहते वही डिसिप्लिन आदि का बहाना करके अपने छात्रों को भी देशहित के कामों से रोका करते हैं । अतएव हमारी यह राय है कि ये लोग हमार गुरू नहीं हैं ।
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अत्र हम इस बात का विचार करते हैं कि, इस देश में, सरकारी स्कूल और कालेजों के रहने पर भी प्राइवेट स्कूल और कालेज क्यों खोले गये । लार्ड रिपन के शासन समय में शिक्षा-विषयक एक कमीशन जारी हुआ था। उस कमीशन ने यह सम्मति दी थी कि लोगों को प्राइवेट शालाएं खोलने का उत्तेजन दिया जाय। उस समय, भारत सरकार की यह राय थी, कि इस देश में शिक्षा का जितना प्रसार करने का सरकार का इरादा है उतना प्रसार, प्राइवेट शालाओं की सहायता बिना, हो नहीं सकेगा । अतएव लोगों को शिक्षा का भार स्वयं अपने ऊपर लेना चाहिए । परंतु इस बात की ओर विशेष ध्यान रहे, कि प्राइवेट शालाएं हूबहू सरकारी शालाओं के तर्ज पर न हों - वे केवल सरकारी शालाओं की नकल न करें - वे सरकारी शालाओं के प्रतिविम्य स्वरूप न बनें; किंतु सरकारी शालाओं की शिक्षा-प्रणाली में जो कुछ अभाव हो उसकी वे पूर्ति करें - सरकारी शाल श्री की शिक्षा-पद्धति के दोषों को वे दू.र करें-जो बातें सरकारी शालाओं में सिखाई नहीं जाती उनकी शिक्षा का वे उचित प्रबंध करें। अर्थात् सरकारी शालाओं में जिस स्वाधीनता की शिक्षा दी नहीं जाती उस शिक्षा का विशेष यत्न प्राइवेट शालाओं में किया जाना चाहिए। इसी उच्च हेतु की सफलता के लिये पूना, कलकत्ता, मद्रास, लाहोर, बनारस आदि स्थानों में प्राइवेट कालेज खोले गये। इसी उच्च हेतु की सफलता के लिये, अर्थात् अपने देशभाइयों को स्वतंत्र और उदार शिक्षा देने के लिये, इस देश के अनेक सुशिक्षित युवकों ने स्वार्थत्याग किया और उक्त संस्थाओं की सेवा करने के लिये आत्मार्पण किया । इसी