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स्वदेशी आन्दोलन और बायकाट।
हमारी कुछ भी नहीं सुनते उन्हीं लोगों का राज्य, इस समय, हमारे देश में है; परंतु क्या इससे यह बात सिद्ध होती है कि हम लोग, स्वयं अपनी हानि करके, उन लोगोंही के व्यापार की सहायता करते रहैं ? नहीं; कदापि नहीं।
इस संसार में यह बात प्राचीन समय से चली आ रही है कि, एक जाति अन्य जाति पर अपना अधिकार जमाने का यत्र करती है; एक समाज अन्य समाज पर अपनी प्रबलता स्थापित करने का उद्योग करता है। एक देश अन्य देश पर अपनी प्रभुता जमाने का उपाय रचता है। जब दुर्भाग्य-वश कोई एक देश किसी दूसरे देश के अधीन हो जाता है तब पराधीन-प्रजा को इस बात का विचार करना ही पड़ता है कि प्राचीन स्वत्वों की रक्षा किस प्रकार की जाय और नूतन स्वत्व किस प्रकार प्राप्त किये जॉय । जबसे भारतवासी अपनी स्वाधीनता को खोकर पराधीन हो बैठे तबमे उन्हें भी इस बात का विचार करना पड़ा। मुसलमानों के समय में जब यह देश पराधीन हुअा था तब मिर्क हमारी राजसत्ता ही छीन ली गई थी-तव हमारा व्यापार हमारे ही हाथ में था, वह नष्ट नहीं हुआ था। परंतु अंगरेजों के राज्य में हमारी राजसत्ता के साथही हमारे व्यापार का भी सर्वथा नाश हो गया है। स्मरण रहे कि अंगरेज लोग केवल राज्यकर्ता ही नहीं हैं, किन्तु वे व्यापारी भी हैं। वे केवल तत्रियही नहीं हैं, किन्तु वे वैश्य भी हैं। इन्हीं दोनों वृत्तियों के योग से, इस देश में, उनकी राजनीति तथा व्यापारनीति बनी है। इस समय हम लोग, राजनैतिक दृष्टि से, तथा व्यापार में, सर्वथा इंगलैण्ड के अधीन हैं। ऐसी अवस्था में, जब कि अंगरेजों में दो प्रकार की वृत्तियों का योग हुआ है, अर्थात् वे क्षत्रिय ( राज्यप्रबंधकर्ता और शासक ) हैं और वैश्य ( वणिक, व्यापारी ) भी हैं; और जब कि हमारे आन्दोलन का असर, हमारी पराधीन प्रजा की पुकार का असर, हमारी याचकवृत्ति का असर, राज्यकर्ताओं को क्षात्रवृत्ति पर कुछ भी नहीं होता; तब हम लोगों को उनकी वैश्य-वृत्ति- अर्थात् व्यापार-विषयक उनकी स्वार्थ-बुद्धि-पर आघात करना चाहिए । यही