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जैनधर्मपर व्याख्यान
२३ अर्थ-किसी जीवकी हिंसा मत करो. और ऐसे भी मनुष्य थे जो निम्नलिखित उपदेश देवे थे कि:
न स्वर्गो नापवर्गो, वा नैवात्मा पारलौकिकः । नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियश्चफलदायिकाः॥ अमिहोत्रं त्रयो वेदाखिदण्ड भस्मगुण्ठनम् । बुद्धिपौरुषहीनानां जीविका धातृनिर्मिता ॥ पशुश्चेनिहतः स्वर्ग ज्योविष्टोमे गमिष्यति। स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान हिंस्यते ॥ मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत् तृप्तिकारणम् । गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थे पाथेयकल्पनम् ॥ स्वर्गस्थिता यदा तृप्निं गच्छेयुस्वत्र दानतः। प्रासादस्पोपरिस्थानामन्नं कस्मान दीयते॥ पावज्जीवेत् मुखंजीवेणंकृत्वा घृतं पिवेत् । 'भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ 'पदि गच्छेत् परलोकं देहादेशविनिर्गतः । 'कस्माद्योन चायाति बन्धुस्नेहसमाकुलः॥ 'ततश्चजीवनोपायो बाह्मणैर्विहितस्त्विह। मृतानाप्रेवकार्याणि नत्वन्यद्विचतं वचित् ॥ त्रयोवेदस्य कर्तारो भांडधूर्तनिशाचराः। जर्फरीतुर्फरीत्यादिपंडितानां वचःस्मृतम् । अश्वस्यात्रहिशिश्नं तु पत्नीग्रामं प्रकीर्तितम् ॥ भण्डैस्तद्वत्परश्चैव ग्राानातंप्रकीर्तितम् ॥
मांसानां स्वादनं तद्वनिशाचरसमीरितमित्यादि । ' अर्थ-न कोई स्वर्ग है न मोक्ष हैं और न परलोक है जिस्में फिर जन्म होता हो, और न चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, और शूद्र) और भाश्रमादि (ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वाणप्रस्थ और सन्यास) का कोई सचमुचम फल प्राप्त होता है। अमिहोत्र, तीनवेद (ऋक, यजु और साम), (तीनदंड) और शरीरपर भस्मलगाना । ईश्वरने ऐसे मनुष्योंके लिये ही जीविका बनाई है जिनमे न तो बुद्धि है और न पौरुष (हिम्मत) हैं। यदि यह बात सत्य है कि जो पशु ज्योतिस्टोमयज्ञमें माराजाता है वह स्वयं स्वर्गमें चलाजाता है तो फिर क्या कारण है कि यज्ञकरनेवाला अपने पिता की बलि नहीं देवे जिससे वह भी स्वर्ग में चला जाय ? यदि मरेड्डुये मनुष्य की श्रारसे तृप्ति (तसली) हो जाती है तो फिर मुसाफिरोंका रास्तके वास्ते भोजन