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जैनधर्मपर व्याख्यान.
" मा हिस्यात् सर्वाभृतानि" का अपवाद है. वह इस बात पर विश्वास नहीं करता कि यज्ञकी हिंसाको छोडकर और सब हिंसा हिंसा होती है बल्कि इसके विरुद्ध वह इस बात को मानता है कि सब प्रकारकी हिंसा हिंसा होती है और वैदिक यज्ञ जो हिंसाके दोषसे भरे हुए हैं पुरुषको दःखसे नहीं छडा सते. वह कहता है कि यदि वेदविहित हिंसा हिंसा नहीं समझी जातो तो युधिष्ठिरको युद्ध की हिंसाके कारण प्रायश्चित्त करनेकी कोई जरूरत न होती • क्यों कि इसको बेदोंमें क्षत्रियोंका धर्म बतलाया है. युधिष्टिरादीनांस्वधर्मपियुद्धादोज्ञातिवधादिप्रत्यवायपरिहारायमायश्चित्तश्रवणाच ।
सांख्यसूत्र ६ अ० १ के विज्ञानभिक्षुकृतभाष्यमें) अर्थ-यधिष्ठिरादि रानाओंको अपने धर्मरूपी युद्ध में भी जातिवधके पापको दूर करने के लिय प्रायश्चित्त करना सुना गया है। फिर सांख्यकारिका २ में लिखा है:प्रश्वदानुविकः सद्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः ।।
सांव्यतत्वकौमुदी-गुरुपाटादनु पतइत्यनुश्रवांवेदः । एतदुक्तंभवति । श्रूयत एव पनिकेनापिक्रियतइत्यनुश्रवोवेदः नत्रभवआनुश्रविकः । तत्रमाप्नोज्ञातइतियावत् । आन श्रविकोपिकर्मकलापांहष्टेनतुल्योवर्तत इति ऐकान्तिकात्यन्तिकदुःखमतीकारानुपायत्व स्योभयत्रापितुल्यत्वात्-अस्यां प्रतिज्ञायां हेतमाह-सह्यविशुद्धक्षयातिशययुक्तः । अवि शद्धिःसोमादियागस्यपशुबींजादिवधसाधनता क्षयातिशयोचफलगतावप्युपायेउपचरिती भायेत्वंचस्वर्गादिः सत्वेसतिकार्यत्वादनुमितम् । ज्योतिष्टोमादयस्वर्गमात्रसाधनवाजपे यादयस्तुस्वागज्यसाधनमित्यतिशययुक्तत्वम् । परसम्पदुत्कर्षोहिहीनसम्पदंपुरुषंदुःखा करोति ।
यहां भी हम फिर यही बात देखते है कि कपिलके मतपर चलनेवाला यह नहीं मानता है कि:
"अग्नीषोमीयं पशुमालभेत् " क्योंकि इस श्रुति की
" मा हिंस्पात् सर्वाभूतानि "एक अपवादभूत है। गौडपादने सांख्यकारिका भाष्य बनाया है उसमें वह कपिल मुनिके मतको पुष्ट करता है और इसकी पुष्टिमें महाभारतका प्रमाण देता है वह पिता पुत्रके सम्बादसे एक श्लोकका प्रमाण देता है जिसमें पत्र कहता है:
तातैतद्धहुशोभ्यस्तं जन्मजन्मान्तरेष्वपि ।
त्रयीधर्ममधर्माव्यं न सम्यकपतिभाति मे ॥ - देखो परिशिष्टमें लेख नं. १० का.