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जैनधर्मपर व्याख्यान. कपिलने बुद्धकी नकल की होगी, " यहबात भी हम दृहतासे कह सकते हैं कि भारतवर्षमें तत्त्वज्ञानसंबंधी विचारकी एक बड़ी भारी सामान्य पूंजी थी जो भाषाकी तरह किसी खास मनुष्यकी नहीं थी और जिसका हरएक विचारशील पुरुष वायुकी तरह श्वासलेता था. केवल इसी विनापर यह कहा जा सकताहै कि हमको भारतवर्षके करीब २ सब न्यायदर्शनोंमें ऐसे खयालात मिलते है जिनको सब तत्त्वजाननेवाले अंगीकार करते मालूम होते हैं और किसी एक खास पुरुषसे संबंध नही रखत"।
" इस विश्वासके सिवाय कि दुःखका उसके स्वभाव और उत्पत्तिकी जांच करनेसे नाश होसक्ता है और भी अनेक विचार हैं जिनका उस बहुमूल्य खजानेसे पता लगाना चाहिये जो भारतवर्षके हरएक बिचारशीलपुरुषके लिये खुला हुआ था. निस्सन्देह इन सामान्यविचारोंने मताक पृथक २ भेष धारण करलिये है परन्तु इससे हमको धोखा नहीं खाना चाहिये थोडासा ध्यान देनेस हमको इसका प्रधानकारण मालूम होसकता है।
"जितना ज्यादा मने अनेक दर्शनोंको पढ़ा उतनाही अधिक मुझको विज्ञानभिक्ष और अन्यपुरुषोंकी गयकी सचाईका विश्वास हुआ कि षट्दर्शनोंके भेद होनेके पूर्वकालमें जातीय वा सर्व प्रियतत्वज्ञानकी (फिलासफी Philosophy की) सामान्य पंजी या अर्थात् तत्वज्ञान संबंधी विचार और भाषाका बहुत दूर उत्तरदिशामें और भतकालम (वीतहये जमानेमें) एक मानसगेवर था, जिस से हरएक विचारवान पुरुषको अपने २ मनोग्यके वास्त ग्रहणकरनेकी आज्ञा यी " ।
महाशयो! यहकधन प्रोफेसर मैक्समूलर ( Max muller ) साहबने उस वक्त कियाथा जब उनकीउम्र ७६ वर्षकी थी। शोक हैं कि यह महाविद्वान जैनमतको नहीं पढ़सके उनकी सब उम्र वैदिक और बौद्धमतकी विद्याको प्रगट करनेमें व्यतीत हुई और उनको गरीब जैनमतकं पढ़नेकेलिये समय नहीं मिलसका । यदि उन्होंने कहा है कि जैनमतको निग्रंथ नातपुत्तने चलाया तो मैं खयाल करता हूं कि यह उन्होंने इस सबबसे कहा कि उन्होंने इसरायके ग्रहण करनेमें कोई क्षति ( विघ्न ) नहीं देखी । यह राय उनकी जैनमतकी प्राचीनता पर विचार करनेका नतीजा नहीं है परन्तु मुझको प्रसंग नहीं छोड़ना चाहिये मुझे यहां केवल यह बतलाना है कि पुराने भारतवर्षमें किसी प्रकार की नकल नहीं करना थी । अनेक ऋषियोंकी जीवनके विषयमें अनेक रायें थीं और जो दर्शन आप देखते हैं वे उन ऋषियों की रायोंका संग्रह हैं।