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जैनधर्मपर व्याख्यान.
ऋचा ४ में इन्द्र अपनी सत्ताको ( होनेको ) प्रामाणिक करनेका उद्योग करता है । और कहता है कि मैं अपने शत्रुओंका नाश करता हूं.
"अयमस्मि जरितः पश्यमेह विश्वाजातान्यभ्यस्मिमहा ऋतस्यमापदिशोवर्धयत्नादार्दरोभुवनादर्दरीमि ॥ ४ ॥
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सायनभाष्य - एवं नेमस्य ऋषेर्वचनमाकर्ण्य इन्द्रस्तस्य समीपमाजगाम । आगत्य चात्मानमनेनचेनस्तौति । हे जरितः हे स्तोतः अयमहमस्मिः इह तव समीपे स्थितं माँ पश्य, विश्वा सर्वाणि जातानि भुवनानि महा महत्वेन अभ्यस्मि अहमभिभवामि । किंच मामां ऋतस्य सत्यस्य यज्ञस्य त्वामदिशः प्रेदष्टारो विद्वांसः स्तोत्रैवैद्ययन्ति अपि च आदादरः आदारणशीलोऽहं भुवना भुवनानि शत्रुभूतानि ददेरीमि भृशं विदारयामि ।
अर्थ- हे नेम में यह हूं तु मुझको अपने पाम खडा हुआ देख मे सत्र लोकोंको अपने तेजसे जीतता है, मुझको विद्वान लोग स्तोत्रोंस खुश करते हैं, मैं आदरके योग्य हूं और शत्रुओं का सब जगह नाश करता हूँ ।
मंडल २ अध्याय २ सुक्त १२ ऋचा ५ में गृत्समद ऋषि कहते है कि, ऐसे भी मनुष्य हैं जो कहते हैं कि कोई इन्द्र नहीं है. परंतु यथार्थम इन्द्र है.
"यस्माच्छन्ति कहसेस घोर मुते साहमैषो अस्तीत्येनं सो अर्थः पुष्टीर्विज इवामि नातिश्वदस्मैवत्तसजना स इन्द्रः ॥ ५ ॥
सायनभाष्य - अपश्यन्तो जनाघोरं शत्रुणांघातक यपृच्छन्तिस्म कुसति, मन्द्रः कुत्रवर्तत इति सेति "सोचिलोपेचेत्पादपूरणम्" इति सोर्लोपे गुणः । न क्वचिदसौ तिछतीतिमन्यमानाजन एनमिन्द्रमाहुः "एष इन्द्रो नास्तीति" तथाच मंत्रे-नेन्द्र अस्ती ति नेमत्व आहेत" ईमिति पूरण: । उज्ञापिच स इन्द्रां विजइव । इवशब्दसवार्थे । उद्रजकएवसन्अर्योअरेः सम्बन्धिनी: पुष्टीः पोषकाणि गवांश्चादीनिधनानि आमिनातिसर्वतोहिनास्ति । मीङ हिंसायाम् " मीनाते निर्गमे " इति -हस्वः । तस्मात्श्चंदस्माइन्द्राय धत्त स इन्द्रोऽस्तीतिदृश्यतं तथापि अस्तीतिविश्वासं कुरुतः एवं निर्धारण महिमोपेतः स इंद्रोनाह मिति ०
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अर्थ- मूर्ख लोग यह समझकर कि "इंद्र कहां है और वह कहीं नहीं हैं " कहते हैं कि इंद्र नहीं है विचारवान् पुरुष कहते हैं कि वह शत्रुओंकी गाय आदि धनका नाश करता है. इसलिये उसका होना जाना जाता हैं. उसपर विश्वास करो वह इंद्र मैं नहीं हूं ।
फिर पुराने भारतवर्ष में ऐसे मनुष्य थे जो यह विश्वास करते थे कि पुनर्जन्म अ वश्य होता है, और ऐसे भी थे जो इसका खण्डन करते थे ।