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जैनधर्मपर व्याख्यान शून्य है संयोक्ता वा बौद्धमती कहते हैं कि वस्तु मौजूद तो रहती है परंतु केवल क्षण भर " इत्यादि--
मैक्समूलर (Max imuller) साहबके किये हुये तर्जुमेमें शब्द स्याहादी जैनियोंके लिये आया है. जैनसम्बंधी मूल श्लोकोंपर नीलकंठकी टीका इस प्रकार है "सर्व संशयितमिति स्याद्वादिनः सप्तभङ्गीनयज्ञाः "
(श्लोक २ अ४८) अर्थ-हरएक वस्तुमें संदेह है यह उन स्याहादियाँका मत है जो सप्तभंगी न्याय जानते हैं।
यह साफ नौरपर जैनियोंकेलिये आया है स्याहादी जैनी होते हैं जैसा कि बार्थ ( Burtle ) माहब अपनी पुस्तक "भारत वर्षके धर्म"( Relegions of India) के कोष्टक १४८ पा स्वीकार करते हैं और जैसा कि अमरकोषके एक क्षेपक श्लोक लिखा है।
"नैयायिकस्त्वक्षपादः स्यात्म्यादादिक आहकः ।"
(२ कांड-ब्रह्मवर्ग, ६ और ७ के बीच में) अर्थ-नैयानिकः अक्षपाद होते है. और स्याहादी आहेक अर्थात जैनी होते हैं
जैनी सप्तभंगी नयज्ञ होते हैं इस कारण सप्तभंगी नय बहुधा ब्राह्मणों के लिये खंडन करनेका विषय है. यदि उनको जैनमतमें खंडन करनेके लिये कोई बात मिलती है तो वह सप्तभंगा नयही है सप्तभंगीनय पर ही बादरायण वा व्यास मुनिने ३३ वे सूत्रमें दोष निकाले हैं. इसी नयके सबबसे शंकर उज्जनके समीप जैनियोंसे जीता, ऐस! माधवने अपने शंकर दिग्विजय नामक ग्रंथमें लिखा है.
मुझको एक पंडितसे हालहीमें मालूम हुआ है कि इसी सप्तभंगीनयका 'स्वाराज्य सिद्धिग्रंथ,' खंडन किया है । ____ अब महाशयों ! मैं आपसे पूंछता हूं कि जब जैन और बौद्धोंका उस समय से जब महाभारत और वेदान्तसूत्र बनाये गय थे. अलग २ कथन है. तो जैनी बौदोंकी शाखा किसप्रकार समझे जा सक्ते हैं ?
ब्राह्मणोंके ग्रंथों में यदि जैनियोंका और कथन देखना हो तो महाभारतके आदि पर्व अध्याय ३ के श्लोक २६ से २७ तक देखिये जहां शेष नाग नग्न क्षपणकके भेषमें उकके कुंडलको चुरा ले जाता है
साधयामस्तावदित्युक्वा प्रातिष्ठतोत्तङकस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोऽपश्यदय पथि नर्म क्षपणकमागच्छन्तं मुहर्मुहृदेश्यमानमदृश्यमानं च ॥ २६ ॥