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जैनधर्मपर व्याख्यान.
साgrोंको भोजन दिया हो । शाकटायन के बनाये हुये उणादि सूत्र में शब्द जिन, भाया है इसिजिद हृष्यविभ्योनकू ( सूत्र २८९ पाढ़ ३ )
सिद्धांत कौमुदी के कर्ता ने इसका अर्थ अर्हन किया है (जिनोऽर्हन् ) जो शब्द कि जैनमत के प्रचलित करनेवाले के लिये आता है ।
यह सत्य है कि अमरकोष में शब्द 'जिन' और 'बुद्ध' का अर्थ एकही कहा है और मेदिनी कोषमें 'जिन' का अर्थ ( १ ) बुद्ध अर्थात् बौद्धमतको चलानेवाला ( २ ) अर्हन अर्थात् जैनमतका प्रचलित करने वाला लिखा है
जिनोऽर्हति च बुद्धे च पुंसि स्यात्रिषु जित्वरे ।
अर्थ-जिन पुल्लिंग में अर्हत के लिये आता है और बहकेलिये, जीतनेवालेके लिये तीनो लिंगो में आता है ।
परंतु जहां कहीं 'जिन' शब्द भावे उसका अर्थ उसमतका प्रचलित करनेवाला समझना चाहिये कि जिसका नाम इस शब्द से बना है न कि उसमत का चलानेवाला जिसका नाम वृद्ध से संबंध रखता हैं विशेषकर यह अर्थ उस स्थानपर लेना चाहियें जहाँ वृत्तिकार 'जिन' का अर्थ भर्हन् वतलाता है जैसा कि उणादि सूत्रमें जिसका कथन ऊपर बाचुका हैं जहांकि सिद्धांतकौमुदीके कर्त्ता ने इसके माने अर्हत के लिये हैं. जो शब्द कि जैनमतके प्रचलित करनेवालके लिये आता है. सारांश ( नतीजा) इसका यह हैं कि शब्द 'जिन' उणादिसूत्रमें जैनमतके प्रचलित करनेवालेके लिये आया हैं
अब देखिये कि शाकटायन किस समयमें हुआ यास्कने अपने निरुक्त नामक ग्रंथ में उसका प्रमाण दिया है
'सर्वाणि नामान्याख्यातनानीतिशा केंद्रायनो नैरुक्तसमयश्च
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( अध्याय १ )
अर्थ- सब नाम धातु से पैदा होते हैं यह शाकटायन मत और नैरुक्तसिद्धांत है ॥ यास्क पाणिनी से कई वर्ष पहले हुआ और पाणिनि महाभाष्यकार पतञ्जलिके पूर्व हुआ और कहते हैं कि पतञ्जलि ईस्वी संवत से दो सौ वर्ष पहले हुआ ।
मुझको यह बात भी नहीं छोड़नी चाहिये कि ब्राह्मणोंकी पुस्तकों में 'जिन और 'अर्हत्' दोनों शब्द जैनमत के प्रचलित करने वालेके लिये आते हैं यद्यपि 'जिन शब्दकी अपेक्षा ' अत् शब्द अधिक आता है, दृष्टांतके लिये बराहमिहिरको वृहत् संहिता पुस्तक देखिये जिसमें नग्नको जिनअनुयायी ( जिनका पीछा करनेवाला ) कहा है ।
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१ यह शाकटायन ऋषि दिगम्बर जैनाचार्य हुये है जिसका मन पाणिनिने अपनी अध्यायी में तीन जगह ग्रहण किया है.